दोनों पक्षों की निष्पक्ष सुनवाई आवश्यक
पुरुषों को सीधे ही दोषी मानने की मानसिकता पर सवाल
– सीमा हिंगोनिया
वरिष्ठ पुलिस अधिकारी
आज के दौर में समाज में स्त्री-पुरुष की बराबर भागीदारी हो रही है। दोनों ही घर-परिवार, समाज और देश की प्रगति में अहम भूमिका निभाते हैं। लेकिन, जब सुरक्षा, सम्मान, अवसर, शोषण और प्रताड़ना जैसे विषयों पर विमर्श होता है, तो कई बार यह विमर्श एक पक्षीय होकर रह जाता है। हालांकि पुरुष प्रताड़ना का प्रतिशत महिला उत्पीड़न से काफी कम होता है, लेकिन न्याय का नैसर्गिक सिद्धांत यही कहता है कि एक भी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए। ऐसे में हर समस्या में दोनों पक्षों को सुनना और समझना जरूरी हो जाता है। शैक्षिक, संवैधानिक एवं कानूनी अधिकारों के कारण स्त्री विमर्श ज्यादा बढ़ चुका है, लेकिन पुरुषों से जुड़ी समस्याओं की अनदेखी इसी चिंता की ओर ध्यान दिलाती है कि कहीं किसी निर्दोष के साथ अन्याय नहीं हो जाए। स्त्री-पुरुष की जैविक परिभाषा में लैंगिक विभेद जरूर है, लेकिन कुछ अंगों को छोड़कर दोनों की शारीरिक रचना उन्हें एक समान ही दर्शाती है। सामाजिक परिभाषा की तरफ नजर डालें, तो स्थिति अलग नजर आती है। पुरुष को घर का मुखिया, बलशाली, सुरक्षित और महिला को आश्रित, दुर्बल, अबला और असुरक्षित महसूस करा कर समाज में बड़ा भेद कायम किया हुआ है। यह भेद आधुनिक मस्तिष्क में भी उतना ही अंदर तक घर कर चुका है जितना सदियों पुराने दौर में था।
देखा जाए तो मानसिक तनाव, प्रताड़ना, अवसाद, आत्महत्या और गंभीर बीमारियों से जुड़ी कई परेशानियां पुरुषों में लगातार बढ़ती जा रही हैं। इसके बावजूद पितृसत्तात्मक मानसिकता के चलते इन समस्याओं को विमर्श विहीन मानकर पुरुष को बलशाली, मजबूत और निडर मान लिया जाता है। कानून भी कुछ इस तरह के ही बने हुए हैं कि यदि वह मानसिक रूप से घरेलू समस्याओं से पीड़ित है, तो उसकी पर्याप्त सुनवाई के माध्यम हमारे सिस्टम में ज्यादा नजर नहीं आते हैं। विवाह के तुरंत बाद दहेज प्रताड़ना के मामले या ब्लैकमेल के इरादे से यौन शोषण के आरोप आदि इसी श्रेणी में आते हैं। थाना, कोर्ट कचहरी, आयोग के साथ सामाजिक संस्थाओं में भी पुरुष प्रताड़ना को सुनने वाला कोई तंत्र अभी तक विकसित ही नहीं हुआ है, जबकि आज यह समय की मांग है।
घरेलू हिंसा, दहेज प्रताड़ना, यौन शौषण के प्रकरणों को देखते-सुनते और अनुसंधान करते वक्त ऐसे कई मौके सामने आए, जब पुरुष और उसके पक्ष के परिजन भी एक पीड़ित के रूप में सामने आते हैं। इस दौरान ज्यादा संघर्ष करना पड़े, तो मानसिक प्रताड़ना और बढ़ जाती है। इसका कारण यह है कि ऐसे कई प्रकरणों में महिला और उसका परिवार समस्या के समाधान की बजाय समस्या को लम्बे समय तक खींचने में ज्यादा विश्वास रखता है। समाधान की राह आसान होने के बावजूद एक तरह से बदला लेने का भाव ऐसे प्रकरणों में होता है। ऐसे प्रकरणों में दोनों पक्षों की तरफ से बौद्धिक विकास एवं निर्णय लेने की क्षमता का होना जरूरी हो जाता है। ऐसा जब नहीं होता तो वह दोनों पक्षों को आर्थिक, मानसिक, शारीरिक दृष्टि से भारी नुकसान पहुंचाने वाली हो सकती है। यह बात और है कि ऐसे आसान मामलों में भी देखने की कोशिश एक पक्षीय ही होती है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज भी पुरुष प्रधान समाज में महिलाएं ज्यादा पीड़ित और प्रताड़ित होती हैं। इसलिए उन्हें ज्यादा संरक्षण की जरूरत है। लेकिन, पुरुष वर्ग को सिर्फ समाज में घर करने लगी इसी भावना से नहीं सुना जाए कि वह तो शोषक है शोषित नहीं, भला उसे कौन प्रताड़ित करेगा, तो पीड़ित पुरुषों में कुंठा पैदा होगी ही। पीड़ित पुरुष की सुनवाई के लिए कोई उचित प्लेटफॉर्म भी उपलब्ध नहीं होता। महिला थाने व परामर्श केंद्र पर भी वह प्रथमदृष्ट्या अपराधी होता है। दूसरी तरफ स्त्री के लिए महिला थाना, महिला आयोग, परामर्श केंद्र व महिला कानून हर जगह उसकी मदद करते हैं। जरूरत इस बात की है कि अनुसंधान एवं न्यायिक प्रक्रिया में दोनों पक्षों की समुचित सुनवाई कर उनकी समस्या का त्वरित समाधान किया जाए।