आज गुरु पूनम के पावन दिवस पर परम पूज्य श्री नारायण साँईं द्वारा पसंद की गई भावेन कच्छी द्वारा लिखित एक सत्य घटना जरूर पढ़ें !
धर्मपाल जो कुछ भी छू देता वह सोना बन जाता ।
आशीर्वाद जैसी कोई चीज़ होती है, है क्या ? अपने पिता के वादे का परीक्षण करने के लिए, धर्मपाल ने अपने जहाज में सामान लादा और उन्हें बेचने के लिए ज़ांज़ीबार बंदरगाह के लिए निकल पड़ा ।
अगर आशीर्वाद तीव्र और करुणा से भरा हो और आशीर्वाद देने के बजाय यूँ ही निकले तो उसका असर जरूर होता है । वर्षों पहले की बात है, खंभात में एक परिवार कड़ी मेहनत और ईमानदारी का जीवन जीता था । अब बुजुर्ग पिता हाथलारी फेरते-फेरते थकने लगे थे । धर्मपाल नाम का एक छोटा बेटा उनकी लॉरी खींचने में मदद करता था । उसने कभी भी अपनी आर्थिक स्थिति के बारे में शिकायत नहीं की । हर रात पापा के छाले वाले पैरों की धीरे-धीरे मालिश करता । उसे अपने पिता से बेहद प्यार था । वह उन्हें खुश रखने के लिए कुछ भी करता । उनके पिता की तरह कुछ असामाजिक तत्वों ने उसे प्रस्ताव दिया कि ‘यदि आप हमारा सामान अमुक स्थान पर पहुँचा देंगे तो हम तुमको तीन गुना अधिक पारिश्रमिक देंगे’, लेकिन पिता को संतोष हो इसलिए पुत्र भी ऐसे सांसारिक (ऐहिक) प्रलोभनों से मुक्त रहा । इस प्रकार और कितने वर्ष बीत गए और एक शाम पिता निढाल (अशक्त) अवस्था में बिस्तर पर लेटे हुए थे और उन्होंने अपने बेटे का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा, ‘बेटा, मुझे तुम पर बहुत गर्व है और तुम्हारे प्रति अपार प्रेम है । मैं तुम्हें विरासत में कोई धन-संपत्ति तो नहीं दे सका, लेकिन हृदय से तुम्हारे लिए दुआएँ आती रहती हैं । मेरा आशीर्वाद तुम्हें हमेशा के लिए समृद्ध बनाएगा । जो कुछ भी तुम अपने हाथ में रखोगे वह सोने में बदल जाएगा और तुम अमीर हो जाओगे । मैं जीवित नहीं रहूँगा लेकिन मेरा आशीर्वाद तुम्हारी रक्षा करेगा और तुम्हें खुश करेगा । तुम जिसे भी छुओगे वह सोना बन जाएगा’ इतना कहकर पिता ने परम संतुष्टि और प्रसन्न मन से अंतिम सांस ली । बेटा हर दिन अपने पिता को भगवान मानकर उनकी तस्वीर लेकर उनकी हाथलारी चलाने निकल जाता था । उसे जीवन में कोई शिकायत नहीं थी । गाँव में एक बड़ा व्यापारी था जो विदेश में व्यापार करता था । उसने पिता-पुत्र की वर्षों की मेहनत और ईमानदारी देखी थी । उसने एक शिपिंग कंपनी स्थापित की और बेटे (धर्मपाल) को कुछ लॉरी और ट्रक देकर माल परिवहन का एक बड़ा ठेका दे दिया । कुछ ही महीनों में उसकी किस्मत ऐसे चमक गई और उसे अच्छी खासी कमाई भी होने लगी, धर्मपाल के पारदर्शी काम से सेठ भी खुश हो गया । धर्मपाल ने थोड़ा बड़ा मकान ले लिया । गाँव में उनका खुशहाल परिवार नजर आने लगा । आदर्श पुत्र धर्मपाल अपने पिता की तस्वीर पर पैर पड़कर कहता था, ‘पिताजी, आप सही कह रहे हैं, आपके हृदय के आशीर्वाद से ही मैं इतनी प्रगति कर सका, बस इसी तरह आपकी मुझ पर कृपादृष्टि बनी रहे ।’ कुछ और साल बीतते-बीतते धर्मपाल को शहर का सबसे अमीर आदमी माना जाने लगा । उसकी नैतिकता और निष्ठा के साथ-साथ मानो पूर्ण ग्राहक संतुष्टि उसके आदर्श थे । यहाँ तक कि खंभात शहर के अमीरों और नागरिकों के बीच भी धर्मपाल के नाम की चर्चा होती है क्योंकि धर्मपाल जो भी व्यवसाय करता हैं या निवेश करता हैं उसमें भाग्य की देवी उसे भरपूर समर्थन देती है । धर्मपाल को ऐसी प्रगति पर तनिक भी अभिमान नहीं था । वे जिससे भी मिलते थे, उससे यही कहते थे कि ‘यह मेरे पिता का आशीर्वाद है कि मैं जिसे भी छूता हूं, वह सोना बन जाता है ।’ वरना मेरी ऐसी कहाँ हैसियत कि मैं इतना सुख और धन भोगूँ !’ धर्मपाल अपनी हर प्रगति का यश पिता के आशीर्वाद को देता था – यह उसके मित्र को करने में नहीं आ रहा था । उसका कहना था कि “ऐसा कोई आशीर्वाद हो सकता है !? मैं सूक्ष्म जगत में विश्वास ही नहीं करता हूँ ।” अचानक, यह मित्र धर्मपाल को चुनौती देता है, ‘आओ, मैं तुम्हें जो करने के लिए कहता हूँ, वो धंधा करके दिखाओ और देखते हैं कि कैसे इसमें तुम्हारे पिता के आशीर्वाद तुम्हें कमा कर देते हैं !’ बेटे को भी थोड़ी उत्सुकता हुई । उसने कहा, ‘चल, तू कहे वो धंधा करता हूँ, देखते हैं क्या होता है ।’ उस समय, तंजानिया दुनिया में लौंग और दालचीनी – तेजाना का सबसे बड़ा उत्पादक था । अन्य देशों की तरह भारत भी तंजानिया से लौंग-मसाले का आयात बहुत अधिक कीमत देकर करता था । तंजानिया के जंजीबार से इन सामानों से लदे जहाज खंभात आते थे । धर्मपाल के पिता के आशीर्वाद की परीक्षा लेने के लिए मित्र ने धर्मपाल से कहा कि ‘तुम्हें स्टीमर में लौंग और मसाले भरकर बेचने के लिए खंभात बंदरगाह से ज़ांज़ीबार बंदरगाह जाना चाहिए ।’ धर्मपाल ने कहा, ‘यह कैसा बेवकूफी भरा प्रस्ताव है । हम जंजीबार से ऊँचे दामों पर लौंग और मसाले खरीदते हैं, वहाँ लौंग का उत्पादन होता है । अब अगर मैं वहाँ जाऊँ और उनका माल ऊँचे दाम पर बेचूँ तो मुझे बड़ा नुकसान होगा, लेकिन मेरी हँसी उड़ाई जाएगी, मेरी प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी ।’ दोस्त ने तुरंत कहा, ‘क्यों, तुम्हारे पिता का आशीर्वाद है कि तुम जो भी छूओगे वह सोना बन जाएगा ? देखें तो जरा, तू क्या कमाता है ! तुम भी समझ जाओगे कि आशीर्वाद जैसा कुछ नहीं है ।’ धर्मपाल को भी इस बात की पुष्टि करने में दिलचस्पी हो गई । हालाँकि, उसे विश्वास था कि मेरे पिता का आशीर्वाद मुझे मुसीबत से बाहर निकाल देगा । उसने एक स्टीमर में लौंग और मसाले लादे और उन्हें बेचने के लिए ज़ांज़ीबार के बंदरगाह पर पहुँचा । कई दिनों की समुद्री यात्रा के बाद वह ज़ांज़ीबार के बंदरगाह पर पहुँचे । जहाज को खड़ा रखकर (रोककर) उसने रेतीले तट पर कदम रखा । उसे आश्चर्य हुआ जब उसने देखा कि एक बहुत अमीर दिखने वाला व्यक्ति वहाँ चिंताग्रस्त खड़ा था । समुद्र तट पर कई सैनिक छलनी से रेत छान रहे थे । धर्मपाल को पता चला कि वह व्यक्ति ज़ांज़ीबार का सुल्तान था । धर्मपाल ने पास आकर उसका परिचय दिया । सुल्तान से यह पूछने पर कि सैनिक रेत पर क्यों छान रहे हैं, सुल्तान ने कहा, ‘मैं यहाँ समुद्री व्यापार का निरीक्षण करने आया था और मेरी अंगूठी इसमें कहीं गिर गई है, मेरे आदमी इसे ढूँढ रहे हैं ।’ तब धर्मपाल ने सुल्तान से कहा, ‘माफ करना नामदार, लेकिन आप अमीरों में सबसे अमीर हैं । आपके खजाने में कितनी अंगूठियाँ और जवेरात-गहने हैं, एक छोटी सी अंगूठी के लिए इतनी मेहनत !?’ सुल्तान मिलनसार थे उसने कहा कि ‘यह अंगूठी मुझे मेरे आध्यात्मिक गुरु ने दी थी । यही तो मेरी समृद्धि का रहस्य है ।’ धर्मपाल ने कहा ‘पूज्य सुल्तान, क्या आप यह सब मानते हैं ?’ सुलतान ने कहा कि ‘निश्चित रूप से कोई भी सम्मानित व्यक्ति हमें बिना किसी उद्देश्य के कुछ भी नहीं देते । मेरी प्रगति और मानसिक उन्नति उस अंगूठी और मुझ पर गुरुजी के आशीर्वाद के कारण है ।’ अब सुल्तान ने धर्मपाल से पूछा, ‘आपको मेरी इस बात पर संदेह है ?’ धर्मपाल कहते हैं कि ‘मेरे पिता ने मुझे भी आशीर्वाद दिया है कि अगर मैं धूल हाथ में लूँगा तो वह भी सोना बन जाएगी’ इतना कहते हुए धर्मपाल झुककर और समुद्र की रेत को एक अभिनेता की तरह अपनी मुट्ठी में भर लेता हैं । यह कहते हुए, वह अपनी मुट्ठी से रेत को जमीन पर सरकाता है और उसे यह देखकर आश्चर्य होता है कि रेत में सुल्तान की अंगूठी पाई जाती है । सुल्तान और धर्मपाल बहुत खुशी से आश्चर्यचकित हो जाते हैं जैसे कि यह चमत्कारी घटना घटी हो, जब सुल्तान को अपने गुरु की अंगूठी मिलती है तो वह भावुक हो जाता है । भले ही धर्मपाल मना करता है, लेकिन फिर भी उसे गुरुजी की शपथ के साथ कई सोने के बिस्कुट और आभूषण उपहार में देते हैं । इसके तुरंत बाद, सुल्तान धर्मपाल से पूछता है कि ‘अरे, मैं आपके बारे में पूछना भूल ही गया । आप ज़ांज़ीबार के इस बंदरगाह पर क्यों आये हैं ?’ धर्मपाल ने अपने जहाज की ओर इशारा करके कुछ झिझक के साथ कहा, ‘मैं लौंग और मसाले बेचने आया हूँ ।’ सुल्तान ने कहा, ‘माफ करें, लेकिन ऐसा लगता है कि आपको आपके किसी दुश्मन ने इस तरह का व्यापार करने के लिए यहाँ भेजा है । आपको पता होना चाहिए कि ज़ांज़ीबार तो लौंग और तेजाना के उत्पादन के लिए जगप्रसिद्ध है । हम भारत में अपनी लागत से तीन गुना कीमत पर लौंग और तेजाना बेचते हैं, अब जब आप वही चीज यहाँ लाएँगे, तो आपकी कीमत पर आपकी लौंग कौन खरीदेगा ?’ सुल्तान फिर कहता है, ‘कोई बात नहीं इस बार तुम्हें आर्थिक रूप से बर्बाद करती उस गलती मैं सुधार लेता हूँ । मैं आपके सारे लौंग और तेजाना का सामान तीन गुने दाम पर खरीद लेता हूँ । अब आगे से ऐसी गलती मत करना ।’ अपने पिता को याद कर धर्मपाल की आँखों से आँसू छलक पड़ते हैं । जहाज सोने-आभूषणों का उपहार और लौंग से तीन गुना अधिक मूल्य का एक पर्स लेकर खंभात लौटता है । हम उन यांत्रिक आशीर्वादों के बारे में बात नहीं कर रहे हैं जो हम उन लोगों को देते हैं जो हमारे सामने झुकते हैं । लेकिन अगर कोई गहरी अंतरात्मा से प्रसन्न होकर हमारे उत्थान के लिए करुणा के साथ दो घड़ी तक चिंतन कर मनोमन या वह भी हमारे बिना कहे हमारे अच्छे की कामना करता है या आशीर्वाद देता है तो यह सूक्ष्म दुनिया में फैलकर हमें शारीरिक और वैचारिक रूप से बदल सकता है । निश्चित रूप से, ऐसे आशीर्वाद की तीव्रता मजबूत होना चाहिए । केवल माता-पिता ही नहीं, किसी के भी आपके प्रति अपार सद्भावना हो तो भी कृपा बरसती है । यहाँ तक कि एक दुःखी गरीब (कंगाल) व्यक्ति भी, यदि हम निस्वार्थ मानवता के आधार पर उसके लिए कुछ करते हैं, तो उसका आशीर्वाद हमें भौतिक और आध्यात्मिक रूप से ऊपर उठा सकता है । उसी प्रकार सद्गुरु की कृपा बरसने पर भी ज्ञान, बुद्धि (विवेक), सफलता और प्रसिद्धि संभव हो जाती है । आर्शीवाद अमीर बनने के लिए नहीं है, बल्कि जो कुछ भी प्राप्य है उसमें खुशी महसूस करने के लिए और आर्दश जीवन के मार्ग पर जीने के लिए भी हो सकता है । फिर धर्मपाल में ऐसे संस्कार जागृत होते हैं कि वह खूब कमाई करता है और बाद में सेठ के अलावा भामाशा और दानवीर के नाम से भी जाना जाता है ।
साभार: भावेन कच्छी