विद्यार्थी पथदर्शन…
(पूज्य साँईंजी के सत्संग से संकलित)
एक बार संत यात्रा करने जा रहे थे । बीच में देखा कि एक बरगद का हरा-भरा लंबी जटायुक्त पेड़ था । उसकी घनी छाँव में संत ने आराम किया व साथ के कुछ शिष्यों ने भी आराम किया । चलते गये, बद्रीनाथ की यात्रा की । यात्रा करके जब वापस आये, तो उस पेड़ को देखते हैं कि वह पेड़ गिरा हुआ है । शिष्यों ने संत से पूछा – ‘पहले आये थे तो इस वृक्ष की घनी छाँव थी, लंबी जटायें थी, हरा वृक्ष गिर कैसे गया ?’ गुरु ने कहा – ‘इसमें छेद थे, छेद के कारण इसमें से गोंद निकल रहा था । गोंद निकलते-निकलते इसकी शक्ति नष्ट हो गई और आँधी तूफानों से टक्कर लेने का सामर्थ्य नष्ट हो गया । अंदर से खोखला हो गया, जिसके कारण से यह गिर पड़ा ।’
संत शिष्यों को समझाते हुए कहने लगे – ‘हे शिष्यों ! जिस प्रकार इस पेड़ के अंदर छिद्र होने से इसकी शक्ति नष्ट हुई और आयुष्य क्षीण हो गया । ठीक इसी प्रकार मनुष्य के अंदर रहनेवाले दुर्गुण, दुराचार इत्यादि छिद्र हैं, जो उसका पतन कर मनुष्यत्व से गिरा देते हैं । काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि दुर्गुणरुपी छिद्रों को बंद कर दिया जाये, तो मनुष्य शीघ्र ही महान बन जाता है ।‘
निर्भय बनो
हम विवेक का आदर करें । हमें पता है कि ये सुविचार है और ये कुविचार है । इसमें से हम सदैव अच्छे विचारों को प्रोत्साहन दें । सुख में आसक्ति का नहीं होना और दुःख के भय से रहित होना, यह बहुत ऊँची बात है । ‘मैंने याद नहीं किया ? मैं कैसे पेपर दूँगा ।’ डर… कई विद्यार्थी लोग बीमार हो जाते हैं, पेपर देने के पहले, उनको इतनी चिंता व डर हो जाता है कि उनको बुखार आ जाता है । तो दुःख के भय से रहित होना । अरे ! नहीं आया, तो नहीं आया । जितना आया उतना ही लिख देगें, लेकिन पेपर देने से डरेंगे क्यों ? याद करने की कोशिश करो, इसका मतलब यह नहीं कि परीक्षा देने ही नहीं जाओ । परीक्षा देने जाओ, जो आया वो लिखो और परीक्षा तो देकर ही आओ । डरो मत ! दुःख उतना खतरनाक नहीं होता, जितना उसका भय होता है ।
मृत्यु उतनी खतरनाक नहीं, जितना उसका भय खतरनाक है । मरेगें तो एक बार मरेगें, लेकिन मरने का डर हमें बार-बार अंदर से मारता रहता है । नेपोलियन को सेनापति ने कहा कि – ‘तुमको युद्ध पर जाना है’ और उसे नक्शा देकर रास्ता बता दिया । फिर नेपोलियन से पूछा – ‘अगर समझो, जो रास्ता तुमको नक्शे में बताया वह नहीं मिले, तो तुम क्या करोगे ?’ नेपोलियन ने हिम्मत भरे स्वर में कहा – ‘मैं रास्ता ढूँढने की कोशिश करूँगा, लेकिन रास्ता नहीं मिलेगा, तो मैं अपना रास्ता खुद बना लूँगा । भयभीत नहीं होऊँगा, लौटूँगा नहीं ।’
जैसा अन्न वैसा मन
एक उच्च कोटि के महात्मा थे । एक जगह पर सत्संग करने गये । उन्हें एक सेठ के घर पर ठहराया । सेठ ने उस घर की तिजोरी खुली रखी । सोचा ऊँचे संत हैं, बंद करके क्या करूँगा ? भगवान का ही घर है, क्या लेकर जायेंगे । लेकिन साधु ने तिजोरी खोली और उसके अंदर सोने की चेन रखी थी, उसे देख साधु ने सोचा इसे ले लूँ । साधु ने धीरे से चेन अपने पास छुपा ली और सेठ को बताया भी नहीं कि मैंने चेन बिना पूछे रख ली है ।
साधु दूसरे दिन वहाँ से चले गये ।
जब तीसरा दिन हुआ, तो उनको बड़ा भारी पश्चाताप हुआ । अरे ! मैंने बहुत बुरा काम किया । उस गृहस्थ को तो बताना चाहिये था । मुझे चेन की क्या जरुरत ? मैं तो त्यागी हूँ, रुपये को छूता भी नहीं, उनको बड़ी आत्मग्लानि हुई । वे पुनः सेठ के घर गये और बोले – ‘भाई ! मेरे से अपराध हो गया है । मैंने तेरी चेन चुरा ली ।’ वह गृहस्थ भी आश्चर्यचकित हो बोला – ‘बाबाजी ! हम आपके पास धन इत्यादि रखते हैं, तो आप छूते भी नहीं । आपने चेन ली, कोई बात नहीं, आपका ही घर है, आप रखें । लेकिन आपने ली, फिर लौटा रहे हैं । इसका क्या कारण है ?’ तब साधु बोले – ‘देखो ! जैसा अन्न वैसा मन । जिस दिन मैं तुम्हारे घर आया, उस दिन मैंने जो भिक्षा ली, वह चोर के घर की थी । उसे खाने से मेरा मन चोरी के विचार करने लगा । अब आज, जब वह अन्न बाहर निकल गया, तो मेरा मन शुद्ध हुआ और पश्चाताप से भर गया । अब यह चेन वापस रखो ।’
‘जैसा अन्न वैसा मन, जैसा पानी वैसी वाणी’ । अतः अन्न-जल की सात्विकता का ध्यान रखना चाहिए । इधर-उधर बाजार की खराब चीजों का सेवन करने से बचना चाहिए तथा सात्विक आहार लेकर मन को सात्विक गुणों से युक्त रखना चाहिए ।
मधुर व्यवहार
एक शिष्य ने गुरु से प्रश्न किया – ‘जीवन को महान करनेवाले देव कौन-से हैं ?’ गुरु बोले – ‘पहला जीभ व दूसरा हृदय ।’ शिष्य ने फिर पूछा – ‘पतित करनेवाले कारण ?’ गुरु बोले – ‘पहला जीभ और दूसरा हृदय ।’ शिष्य को यह गूढ़ रहस्य समझ में नहीं आया । गुरुजी ने रहस्य समझाते हुए कहा कि – ‘जीभ मधुर संभाषण करे और संस्कारित हृदय से आचरण हो, तो जीवन महान हो जाता है और अगर जीभ बोले कटू और हृदय में भरी हो दुर्भावना, तो जीवन पतन की ओर अग्रसर हो जाता है ।
अतः जीवन का विकास करने के लिये मधुर व्यवहार और प्रिय संभाषण को जीवन का अंग बना लेना चाहिए, जिससे आपका जीवन सफल हो सके । नारायण हरि ! नारायण हरि ! भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए –
हे प्रभु ! हम वासना की गुलामी से मुक्त होगें । सुख की आसक्ति का त्याग करेंगे । दुःख के भय से रहित होंगे । सुगमतापूर्वक प्रत्येक परिस्थिति में राह का निर्माण करेंगे । मानवता का विकास करने में सहभागी बनेंगे । क्रोध की जगह अक्रोध, भय की जगह निर्भयता लायेंगे । ईश्वर प्रीति कर काम सुख नहीं वरन राम सुख पायेगें । हर रोज नित्य नया अनुभव करेंगे । ॐ… ॐ… ॐ…