
महिलाएँ… प्रत्येक परिवार जोड़ने का कारक भी बन सकती हैं…राह दिखानेवाली रोशनी भी हो सकती हैं… और कभी टूटी जिंदगीयों को जोड़नेवाली भी हो सकती हैं… आठ मार्च, अंतराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है । मैं आपको नारी शक्ति के कुछ उदाहरण देना चाहता हूँ कि कैसे वे अपनी शक्तियों का सदुपयोग समाज को बेहतर बनाने में कर रहीं है तथा अपने हौंसलों को पंख लगाकर मंजिल का सफर भी तय कर रही है । तीन साल की रिम्शा मिश्रा हो, सुजाता बहन हो, या 24 साल की गुंजन हो, बाइक क्वीन डॉ. सारिका मेहता हो या एलन वाट्स हो, जिंदल स्टील की सावित्री जिंदल हो, या दिव्यांग धर्मिष्ठा मेहता हों, मोटरसाइकिल पर दूध बेचनेवाली वीणाबेन हों या ट्रेनों को संचालित करनेवाली दाहोद की वैशाली हों, सुरत की गुलाबी गैंग की रिक्शा चालक महिलाएँ हों या फोबर्स में चमकनेवाली 72 वो महिलाएँ हों जिन्होंने अपने दम पर दौलत कमाई हो – ये सारी उनकी जीवन कथाएँ बड़ी रोचक है, प्रेरक है और विश्वास को मजबूत करती है कि नारी चाहे तो क्या नहीं कर सकती ?
वुमन्स डे सचमुच में कब मनाया जायेगा ?
हम सभी को एक होकर नए सिरे से विचार करने की जरुरत है । स्त्री पर हुकूमत करके एक दिन उस पर गौरव करनेवाले समाज का आभार मान लिया जाए, परंतु सच्चे अर्थ में वुमन्स डे तब मनाया जायेगा जब स्त्री मानसिक रूप से स्वतंत्र होगी । शाम आठ-नौ बजे तक लड़की घर न आये तो माता–पिता चैन की साँस लेकर निश्चिंत होकर उसकी प्रतीक्षा कर सकें, ऐसा समाज विकसित जब विकसित होगा, तभी सच्चे अर्थ में वुमन्स डे माना जायेगा ।
काम करके घर आनेवाली पत्नी के लिए पति एकाध कप चाय बना दे या उसे रसोई में मदद करने को तैयार हो तो सच्चा वुमन्स डे माना जाए । घर में जब चार लड़की हो, तब विवाह का खर्च बचाने की बात दूसरी, तीसरी कक्षा में पढ़नेवाली लड़की के भी मन में बैठाया न जाए, तो सच्चे अर्थ में वुमन्स डे माना जाएगा या स्त्री के अस्तित्व का सच्चा गौरव हुआ ऐसा कहा जाएगा । मगर यह सब कोई पुरुष नहीं करेगा । इसलिए नहीं कि पुरुष को करना नहीं है, इसलिए भी नहीं कि पुरुष अहंकारी, अत्याचारी, क्रूर प्राणी है । सच पूछो तो स्त्री स्वातंत्र्य के मूल में पुरुष ही हैं ।
राजाराम मोहन राय, नानकजी या कालिदास जैसे महापुरुषों ने स्त्री की स्वतंत्रता और शिक्षा के लिए अनेकों प्रयास किये ही हैं । स्वतंत्रता या सशक्तिकरण कोई ऐसी चीज नहीं है जो दी या ली जाए । यह तो अनुभूति है । लड़-झगड़कर या भीख माँगकर मिली हुई स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है । जो मन से स्वतंत्र है, उसे कभी भी अपनी स्वतंत्रता का एहसास किसी और से लेने की आवश्यकता नहीं होती । जो सशक्त हैं, वो कभी भी अपने सशक्तिकरण के लिए कोई एक दिवसीय कार्यक्रम मनाने की बात नहीं सोचते।
भारतीय पुराणों और वेदों की परंपरा में जानकी और जाबाला हैं । शबरी और सुकन्या हैं । गार्गी और गंगासती हैं । मीरा और मना गुर्जरी हैं । हमें स्त्री सशक्तिकरण के लिए प्रयास करने पड़े, इस बात से यह साबित होता है कि हम अपना इतिहास भूल गये हैं । हम अपनी परंपरा से विमुख हो गये हैं । हम अपनी बेटी को सीता बनाकर सहन करना सिखाते हैं, परंतु द्रौपदी बनाकर प्रश्न पूछने की हिम्मत देने में संकोच महसूस करते हैं । हम स्वयं ही कहते हैं कि हम अपनी बेटी को बेटे की तरह पालते हैं । इसका अर्थ यह नहीं है कि बेटी का पालन बेटे की तुलना में अच्छा है । घर की विरासत में बेटी का नाम कितने परिवार डालते हैं ? करोड़ों रूपए खर्च करके धूमधाम से बेटी का विवाह करते हैं हम, परंतु अगर बेटी काम न भी करती हो, तो भी वो स्वाभिमान से जी सके, इस हेतु उसके नाम पर दो पाँच लाख की फिक्स डिपोजिट रख सकें, ऐसी व्यवस्था करने का विचार नहीं आता हमको !
आज की स्त्री जिग्सो पझल (उलझन) की तरह अपने अस्तित्व को टिकाये रखने के लिए संघर्ष कर रही है । वह मॉडर्न है ? वह स्वतंत्र है ! वह व्यक्ति है ? ये सब सवाल स्त्री को स्वयं अपने-आपसे पूछने होंगे । जिस दिन इन प्रश्नों के उत्तर मिल जाएँगे, उस दिन ही सच्चे अर्थ में वुमन्स-डे मनाया जायेगा ।
(संदर्भ-दिव्य भास्कर)