आपको संत सेवा कब मिलती है ? (सेवा की महिमा)
ब्रह्मज्ञानी को पूजे महेश्वर, ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर ।
ब्रह्मज्ञानी मुगत-भुगत का दाता, ब्रह्मज्ञानी पूरण पुरुष विधाता ।
ब्रह्मज्ञानी को खोजे महेश्वर, ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर ।
ब्रह्मज्ञानी का कथ्या न जाये आधा अखर, नानक ब्रह्मज्ञानी सबका ठाकुर ।
जेको जनम मरण ते डरे, साध जना की शरणी पड़े ।
जेको अपना दुःख मिटावे, साध जना की सेवा पावे ।
ये संत की सेवा मिलना ये कोई मज़ाक की बात नहीं । अभागे आदमी का तन सेवा में नहीं लग सकता । अभागे आदमी का मन भगवान के भजन में नहीं लग सकता और अभागे आदमी का धन दैवी कार्य में नहीं लग सकता । जिसके ऊपर भगवान की कृपा होती है उसी का धन परहित में लगता है । उसी का मन भगवान में लगता है और उसी का तन सेवा में लग सकता है । अभागा आदमी सेवा की महिमा क्या जाने ? तो सेवा की बहुत महिमा है ।
‘सेवक सेवा धर्म कठोरा ।’
योगी से भी सेवक का पद ऊँचा है क्योंकि योगी गुफा में, कमरे में बंद होकर साधना करते, ध्यान-योग, प्राणायाम करते उससे तो उनका अपना व्यक्तिगत भला होता है लेकिन जो सेवक है वो अपना तो कल्याण करता है और जिसकी सेवा कर रहा है उसका भी फायदा करता है, कल्याण करता है । तो अपने सहित दूसरे का कल्याण करता है सेवक इसीलिए सेवक का जो पद है योगी के पद से भी ऊँचा कहा है ।
धन्य हैं वे हनुमानजी जिन्होंने रामजी की सेवा करके अपना कल्याण किया और पूरे जगत में एक बहुत अच्छा प्रमाण दिया । तो जो सेवा करता है वही सेवा के आनंद को जानता है । सेवा जो लेता है उससे जो सेवा करता है वो ज्यादा नफे में, फायदे में रहता है ।
‘कर सेवा गुरु चरणन की, युक्ति यही भव तरणन की ।’
सेवा सेवक को भवसागर से पार लगा देती है । स्वतंत्र बना देती है । सुखी बना देती है । जो सेवा लेता है वो तो परतंत्र, पराधीन हो जाता है लेकिन सेवा करने वाला स्वाधीन, स्वतंत्र और सुखी रहता है । इसीलिए सेवा करो… सेवा करो… सेवा करो… दुःखीजनों की सेवा करो ।
दुःखी में, गरीब में परमात्मा को देखकर उसकी सेवा करो । जहाँ जो मिल जाये वो सेवा करो । जनता की सेवा करो । पानी पिलाने की सेवा करो । उनके चरण पादुका संभालने की सेवा करो । कोई न कोई सेवा करो । मधुर वचन बोलने की सेवा करो । अभिवादन की सेवा करो । लोगों को जोड़ने की सेवा करो । जो गिरे हुए है उनको उठाने की सेवा करो । जो उठे हुए है उनको मार्गदर्शन देने की सेवा करो । धर्म की सेवा करो । परिवार की सेवा करो । बाल-बच्चों की सेवा करो । पति की सेवा करो । सास-ससुर की सेवा करो । सबके अंदर भगवान देखकर सेवा करो । सेवा करके जताओ मत । सेवा करके अभिमानी बनो मत । सेवा करके हेकड़ी दिखाओ मत और सेवा के फल को नाली में बहाओ मत । सेवा करके गिनाओ मत । सेवा करो और भूल जाओ । सेवा करो और उसको याद मत रखो और नेकी कर कुँए में डाल और सेवा के फल को और गहरा उतरने दो । कृतज्ञ बनो, कृतघ्न नहीं । और किसी को किए हुए उपकार की याद भी बार-बार दिलाकर उसे शर्मिंदा मत बनाओ ।
सेवा करो अमानी बनकर । सेवा करो निःस्वार्थी बनकर । सेवा करो भगवान का काम समझकर । सेवा करो अपने अंतःकरण को शुद्ध करने के लिए । सेवा करो अपने मन को परिमार्जित करने के लिए । सेवा करो दी हुई भगवान की शक्तियों का सदुपयोग करने के लिए । सेवा करके अभिमानी मत बनो, दंभी मत बनो । सेवा… सेवा के लिए करो । सेवा करके अपना सौभाग्य समझो । सेवा करके अपनी योग्यताओं का सदुपयोग समझो और ऐसे सेवक बनो… ऐसे सेवक बनो कि वो सर्वेश्वर तुम्हारे दिल में प्रगट हुए बिना रह ना सकें । ऐसे सच्चे सेवक बनकर परमात्मा की और सद्गुरु की कृपा को पाते रहो, अनुभव करते रहो और अपने जीवन को उस शाश्वत परमात्मा के संगीत से परिपूर्ण कर दो । आज इन्हीं शब्दों के साथ जिस परमात्मा ने मेरे भीतर बैठकर मेरी वाणी को जागृत किया । जो बोलने की शक्ति देता है और इस व्यासपीठ पर बैठकर अपनी महिमा गाने की सेवा जिस परमात्मा ने मुझे दी है उस शरणागत भक्तवत्सल भगवान के श्रीचरणों में प्रणाम करते हुए आज के सत्र की वाणी को यही विराम दिया जा रहा है ।