बस इतना कर लो, सब आपके मित्र बन जायेंगे
पहली तो होती है श्रद्धा । बिना श्रद्धा के… शालिग्राम में श्रद्धा रखनी पड़ती है, भगवान की मूर्ति में भी श्रद्धा रखनी पड़ती है । नास्तिक बोलेगा कि यह मूर्ति थोड़ी है, भगवान थोड़ी है, यह तो पत्थर है । नहीं… नास्तिक के लिए तुलसी पौधा है, फायदा नहीं होगा । गंगा केवल नदी है नास्तिक के लिए, अश्रद्धालु के लिए । गुरु तो एक मनुष्य है, फायदा नहीं होगा । संत को हाथ-पैरवाले केवल मनुष्य मानेंगे तो वंचित रह जायेंगे, खोखले रह जायेंगे, वहीं के वहीं । गुरु को मनुष्य मत समझिए, अक्षरों का जुड़ा हुआ समूह मंत्र को मत समझिए, शालिग्राम को गोल-मटोल पत्थर मत समझिए, मूर्ति को पत्थर मत समझिए, तुलसी को पौधा मत समझिए, गाय को जानवर मत समझिए, गंगा को मात्र नदी मत समझिए, सूर्य को अग्नि बरसाता गोलम-गोल गोला मत समझिए, भगवान के स्वरूप हैं, श्रीविग्रह हैं । फायदा होगा । गुरु को, संत को मनुष्य मत समझिए, भगवत्स्वरूप है । यह तो शास्त्र बोलता है –
ईश्वरो गुरूरात्मेति मूर्तिभेदे विभागिन ।
व्योमवद व्याप्तदेहाय दक्षिणामूर्तये नमः ।। (तस्मै श्री गुरुवे नमः ।।)
‘नमः’ का क्या अर्थ है ? ‘नमे’ इति ‘नमः’ । मेरा नहीं है, उसीका तो है । बुद्धि भी तो उसीकी, शरीर भी तो उसीका । क्या तुमने कभी सोचा था ? प्लानिंग बनाया था कि मेरी ऐसी नाक हो, मेरी ऐसी आँखें हो, मेरी इतनी हाइट हो, इतने फिट, इतने इंच, ऐसा ललाट हो, ऐसे कान हो, ऐसा गला हो, ऐसी आवाज हो, मैं पुरुष बनूँ, मैं स्त्री बनूँ क्या प्लानिंग बनाया था ? पहले सोचा था क्या ? स्त्री बने तो भी उसने बनाया, पुरुष बने तो भी उसने बनाया । जो और जैसे बने उसीने तो बनाया है । मैं मूर्ख हूँ, मैं बुद्धिमान हूँ, मैं योग्य हूँ, मैं अयोग्य हूँ, मेरे पास इतना धन है, मेरे पास इतनी सत्ता है, मेरे पास इतना ऐसा रूप है, मेरे पास ऐसा मकान है… ।
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर ।
तेरा तुझको देत हूँ, क्या लागत है मोर ॥
‘इदं ममः, इदं त्वम’ ।
‘मन्यते तामसाः जनाः’ ।
इतना तो मेरा है, इतना तुम्हारा है । यह डिवाइडेशन, यह पार्टीशन अज्ञान का फल है । बाहर से समझो, ठीक है, भीतर से समझो कि –
‘उदारचरितानांतु वसुधैव कुटुम्बकम्’ ।
पूरा विश्व हमारा परिवार है ।
मेरा-तेरा, बड़ा-छोटा, भेद यह मन से हटा दो,
सब तुम्हारे तुम सभी के, फासले मन से मिटा दो ।।
कितने जन्मों तक करोगे, पाप कर तुम जो रहे हो ।।
यही तो पाप है । लड़ाता है, जो ग्रह-विग्रह, दुराग्रह को जन्म देता है, यही तो पाप है । भगवान ने दुनिया बनाई, दुःखी होने के लिए थोड़ी बनाई ? हम आपस में परस्पर लड़ मरें, उसके लिए दुनिया थोड़ी बनाई और हम लोगों को थोड़ी बनाया है ? ईश्वर थोड़ी चाहते हैं कि हम लोग लड़ मरें ! झगड़ों में, अशांति में, वैर में, विग्रह में, वैमनस्य में, मत और मतांतरों में लड़ मरने के लिए भगवान ने दुनिया बनाई ? हम लोगों को बनाया ? आनंद के लिए बनाया, सुख के लिए बनाया, शांति के लिए बनाया, तसल्ली के लिए बनाया, विनोद के लिए बनाया, विहार के लिए बनाया । अज्ञान के कारण हम वैर, विग्रह, भय, चिंता, राग-द्वेष, निंदा-स्तुति, मान-अपमान, ईर्ष्या इसमें बुरी तरह उलझ जाते हैं । इससे ऊपर उठना है ना…
प्रिय वाक्य प्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः ।
तस्य मित्रं जगत सर्वंम् मुक्ति तत्र कर स्थिताः ।
जिसकी वाणी में मधुरता है, प्रियता है ।
कहीं चला जाए, देश में चला जाए, विदेश में चला जाए इतना केवल कर लो जहाँ जाओगे सब तुम्हारे मित्र हैं, कहीं चले जाओ… ।
रामतीर्थ चले गए । कहाँ पहुँचना है ? अमेरिका में, किसके घर पता नहीं । कुछ थे पैसे, किसीने दे दिए, टिकट ली चले गए । वहाँ, कहाँ रहेंगे, कहाँ खाएँगे, पैसा-वैसा कोई इंतजाम, कोई प्लानिंग नहीं । जिससे पूरी दुनिया की प्लानिंग होती है उसकी भक्ति तो है ना, वो अपने साथ तो है ना । जो पूरी दुनिया की प्लानिंग करता है, सबकी बुद्धि की प्लानिंग करता है, सबकी योग्यताओं की प्लानिंग करता है, सबके रंग-रूप की प्लानिंग करता है वो तो प्लानर है ना मेरे साथ ।
Very Big Planner My God Is In My Heart.
(वेरी बिग प्लानर माय गॉड इज इन माय हार्ट ।) हम्म… ?
वो बड़े में बड़ा प्लानर, सारे प्लानर उसके आगे नाटे हो जाते हैं, छोटे हो जाते हैं, वो साथ में है फिर क्या है ? एक-एक करके सब यात्री उतरते गए उसमें से, वो अपने मजे से… एक-दो जोड़ी झोला था । एक यात्री ने उतरते-उतरते प्रश्न किया । आप शांति से बैठे हैं, आपका कोई रिश्तेदार, कोई मित्र, कोई संबंधी आपको लेने नहीं आया क्या ? आप कहाँ जाएँगे, कहाँ रुकेंगे ? बड़ी निर्भीकता, बड़ी निश्चिंतता, बड़ी शांति, बड़े सुकून के साथ, बड़ी आत्मीयता के साथ रामतीर्थ ने उत्तर दिया, “यु आर माय फ्रेंड, तुम मेरे मित्र हो यार, तुम्हारे वहाँ चलूँगा” । बोले – “ओह, मेरे यहाँ !” । बोले – “येस, नो डाउट, चलूँगा ।
वो वहीं रुके, जिसने प्रश्न किया उन्हीं के घर रुके । वहीं से पूरी अमेरिका में डंका बजाया । जापान में यही गीता का सिद्धांत है, समता का –
आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पंडित: (पश्यति) ।।
जो सबको अपने आपके समान देखता है, गजब का योग है ।
आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पंडित: (पश्यति) ।।
वही ठीक देखता है, जो अपनी आत्मा के समान नहीं देखता, उसने तो जीवन जीने का मजा ही नहीं पाया । तो एक बात हम याद रखें कोई पराया नहीं है ।