गुरु शिष्य परंपरा – भारत की प्राचीन संस्कृति

गुरु शिष्य परंपरा – भारत की प्राचीन संस्कृति

भारतीय इतिहास में एक से बढ़कर एक शिक्षक रहे हैं । श्रीराम से लेकर स्वामी विवेकानंद तक जितने भी युगनायक हुए हैं, उनके पीछे किसी महान गुरु का आशीर्वाद और शिक्षा रही है । शिक्षण पद्धति तो आदिकाल से चली आ रही है तथा हमारे पौराणिक ग्रंथों में गुरु-शिष्य परंपरा का जिक्र मिलता है । जिसमें ऋषि-मुनियों द्वारा गुरुकुल व्यवस्था के अंतर्गत शिक्षा का जिक्र है । गुरुकुल क्या है ? आइए इसको समझने की कोशिश करें –

प्राचीनकाल में जब विद्यार्थी गुरु के आश्रम में निःशुल्क शिक्षा ग्रहण करता था, तो इसी दिन श्रद्धाभाव से प्रेरित होकर अपने गुरु का पूजन करके उन्हें अपनी शक्ति सामर्थ्यानुसार दक्षिणा देकर तृप्त होता था । देवताओं के गुरु थे बृहस्पति और असुरों के गुरु थे शुक्राचार्य । कन्व, भरद्वाज, वेदव्यास, अत्रि से लेकर वल्लभाचार्य, गोविंदाचार्य, गजानन महाराज, तुकाराम, ज्ञानेश्वर आदि सभी अपने काल के महान गुरु थे । रामायणकाल में अर्थात् जब राजा दशरथजी के चार पुत्र हुए तो उनके राज्य में बहुत खुशियाँ मनाई गयी, क्योंकि इनका जन्म राजा दशरथ के द्वारा बहुत पूजा-पाठ के बाद हुआ था और वे अपने जीवन के चौथेपन पर पहुँच गये थे । ऐसी दशा में राजा दशरथ अपने इन बच्चों को एक पल भी अपने से अलग नहीं करना चाहते थे ।

गुरु वशिष्ठ – राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि बशिष्ठ को कौन नहीं जानता । ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे । त्रेतायुग में भगवान श्रीराम के गुरु रहे श्री वशिष्ठजी भी भारतीय गुरुओं में उच्च स्थान पर हैं ।

गुरु विश्वामित्र – भगवान राम को परम योद्धा बनाने का श्रेय विश्वामित्र ऋषि को जाता है । विश्वामित्रजी को अपने जमाने का सबसे बड़ा आयुध आविष्कारक माना जाता है । उन्होंने ब्रह्मा के समकक्ष एक और सृष्टि की रचना कर डाली थी ।

भगवान श्रीकृष्ण के गुरु आचार्य सांदीपनि थे । उज्जयिनी वर्तमान में उज्जैन में अपने आश्रम में आचार्य सांदीपनि ने भगवान श्रीकृष्ण को ६४ कलाओं की शिक्षा दी थी । भगवान श्रीकृष्ण ने ६४ दिन में ये कलाएँ सीखी थीं । सांदीपनि ऋषि ने भगवान शिव को प्रसन्न कर यह वरदान प्राप्त किया था कि उज्जयिनी में कभी अकाल नहीं पड़ेगा ।

द्रोणाचार्य – द्वापरयुग में कौरवों और पांडवों के गुरु रहे । द्रोणाचार्य भी श्रेष्ठ शिक्षकों की श्रेणी में काफी सम्मान से गिने जाते हैं । द्रोणाचार्य ने अर्जुन जैसे योद्धा को शिक्षित किया, जिसने पूरे महाभारत युद्ध का परिणाम अपने पराक्रम के बल पर बदल दिया । द्रोणाचार्य अपने युग के श्रेष्ठतम शिक्षक थे ।

आचार्य विष्णुगुप्त यानी चाणक्य – कलियुग के पहले युगनायक माने गये हैं । दुनिया के सबसे पहले राजनीतिक षडयंत्र के रचयिता आचार्य चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य जैसे साधारण भारतीय युवक को सिकंदर और महानंद जैसे महान सम्राटों के सामने खड़ा कर कूटनीतिक युद्ध कराए । वे मूलतः अर्थशास्त्र के शिक्षक थे लेकिन उनकी असाधारण राजनीतिक समझ के कारण वे बहुत बड़े राजनीतिज्ञ माने गये ।

स्वामी विवेकानंद के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस भक्तों की श्रेणी में श्रेष्ठ माने गये हैं । उन्हीं की शिक्षा और ज्ञान से स्वामी विवेकानंद ने दुनिया में भारत को विश्वगुरु का परचम दिलाया ।

स्कूल, कॉलेज व विश्वविद्यालय पद्धति : कलियुग में भी आचार्य चाणक्य व श्री रामकृष्ण परमहंस द्वारा भी अपने शिष्यों को आश्रम में ही शिक्षा देने का जिक्र मिलता है । परंतु समय की माँग व आर्थिक युग के पदार्पण से शिक्षा ने भी व्यावसायिक रूप ग्रहण कर लिया और सभी नगरों व कस्बों में स्कूल व कॉलेज खोलकर शिक्षा का ज्ञान दिया जाने लगा । इसमें बड़े व छोटे, ऊँच-नीच की भावना से उबर नहीं पा रहे हैं और न ही ज्ञान का सही रूप दिया जा रहा है ।

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