गुरुसेवा से रहित होकर मुक्ति नहीं मिलेगी

गुरुसेवा से रहित होकर मुक्ति नहीं मिलेगी

गीता ने भी कहा – एकांतवासो लघुभोजनादो मौनं निराशा करणावरोध: ।

एकांत में रहना चाहिए । सारी वृत्तियाँ उस एक परमात्मा में जहाँ विश्रांति को प्राप्त होती है । वो जो विरक्त महात्मा होते हैं न ! विविक्त देशस्य सेवितवं अरतिर्जन संसति ।जनसमुदाय से दूर जाकर एकांत, अज्ञात में भगवान का भजन करते हैं । उनको जो सुख मिलता है, जो लाभ मिलता है, भगवान की भक्ति का जो आनंद आता है उसका वर्णन कर नहीं सकते । ज्ञानवान की बड़ी विलक्षण स्थिति होती है । महामुनि अष्टावक्र महाराज 19वें अध्याय के 19वें श्लोक में कहते है जनक से – हे राजन् ! जो ज्ञानवान है वह तृप्त है, भाव-अभाव से रहित है, वासना से रहित है, लोकदृष्टि से कर्म करते हुए भी वो कुछ नहीं करते ।

भावाभावविहीनो यस्-तृप्तो निर्वासनो बुधः ।

नैव किंचित्कृतं तेन लोकदृष्टया विकुर्वता ।।

लोगों की दृष्टि से वो सो रहे है, खा रहे, पी रहे, आ रहे, जा रहे, बोल रहे, सुन रहे, ले रहे, दे रहे, देख रहे, सुन रहे लेकिन तत्वदृष्टि से वो कर्म करते हुए भी अकर्ता है । उन्हें न तो कभी हर्ष होता है, न विषाद होता है । उनका मन सदा सर्वदा शीतल और तृप्त होता है । ऐसे जीवनमुक्त सामान्यजन की तरह कर्म तो करते है लेकिन निःस्पृह, अनासक्त है । तो पार्वती के ये प्रश्न पूछने पर भगवान शंकर ने कहा कि – हे देवी ! आज तुमने ये प्रश्न पूछा इससे पहले कभी ऐसा प्रश्न किसी ने नहीं पूछा जो तुमने पूछा । आपका प्रश्न लोगों के लिए बड़ा मंगल करनेवाला है क्योंकि तुमने वो पूछा है कि जिससे लोगों की गुरुभक्ति बढ़ेगी । गुरुभक्ति बढ़ेगी तो गुरुचरणों में प्रेम बढ़ेगा और जिसके जीवन में सद्गुरु के चरणों में प्रेम है उसको आत्मज्ञान भी मिल जाएगा क्योंकि कलियुग में आत्मज्ञान प्राप्त होना बहुत दुर्लभ है और वो ज्ञान गुरु के बिना नहीं मिलता और गुरु की कृपा भक्ति के बिना नहीं मिलती । गुरु की सेवा से विमुख हुए वो गंधर्व मुक्त नहीं होंगे हे देवी ! ये चार्वाक, ये वैष्णव, जो गुरु की भक्ति से रहित है, जो गुरु की सेवा से रहित है ।

न मुक्तास्तु गंधर्वाः । न चारण मुक्त होंगे, न गंधर्व मुक्त होंगे, न किन्नर मुक्त होंगे । गुरुसेवा से रहित होकर मुक्ति नहीं मिलेगी ।

गुरु बिन ज्ञान न उपजे, गुरु बिन मिटे न भेद ।

गुरु बिन संशय ना मिटे, जय जय जय गुरुदेव ।।

तो गुरुगीता का सुबह पाठ हुआ और उस पाठ में आप लोगों ने ये समझा कि वेद, शास्त्र, पुराण, अगम, निगम, मंत्र, यंत्र, तंत्र और शास्त्रोक्त क्रियाएँ ये सारी की सारी जिसने गुरुतत्व नहीं जाना सब व्यर्थ हो जाता है और जिसने गुरुज्ञान को समझा, जिसके अंतःकरण में गुरुभक्ति का प्राकट्य हुआ वह वेद न पढ़े, पुराण न पढ़े, तीर्थ न करे, यज्ञ न करे, पुराण न पढ़े तो भी उसके हृदय में वह वैदिक ज्ञान प्रगट हो जाएगा गुरु की कृपा से । धन्य है वे माता-पिता जो अपने बच्चों को गुरुकुल में डालते है । ऐहिक ज्ञान के साथ-साथ आध्यात्मिक संस्कार भी उनमें जाते है । स्कूलें तो कई हैं, शिक्षण संस्थान तो बहुत सारे हैं लेकिन गुरुकुल में जो शिक्षा-दीक्षा दी जाती है न, बड़ी विलक्षण है और उसमें भी जो दीक्षित शिक्षक-शिक्षिकाएँ हो तो कहना ही क्या ! तो गुरु का मिलाप, गुरु का सत्संग, नाम का मिलना और नाम की कमाई करने का मौका मिलना ये ऊँचे भाग्य की बात है । सद्संगति के बराबर दुनिया में कोई संगति नहीं । सुसंगति जल जाए इसमें कथा नहीं राम की । तो भगवान शंकर ने कहा – स्वदेशिकस्यैव च नामचिन्तनम् ।

जो शिव का चिंतन है वही गुरु का चिंतन है । जो गुरु का चिंतन है वो शिव का चिंतन है । जो गुरु का कीर्तन शिव का कीर्तन है, शिव का कीर्तन, गुरु का कीर्तन है । तो ईश्वर और गुरु मूर्ति भेद से भिन्न-भिन्न भासित होते है लेकिन तत्व में तो एक है ।

गुरु मिला तब जानिये, मिटे मोह अभिमान ।

हर्ष, शोक व्यापै नहीं, तव गुरु अपने आप ।।

 

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