पूज्य श्री नारायण साँईं का होली निमित्त शुभ संदेश – 2019
होली के पावन अवसर पर सबको खूब-खूब शुभकामनाएं…!!
और साथ मे डॉ. अतुल चतुर्वेदी का लेख आपको भेजता हूँ ।
पढ़िए …
(राजस्थान पत्रिका, बुधवार, पेज – 6, 20/3/2019, www.patrika.org.com)
होली का त्योहार जिसके तमाम रंग हैं, खट्टे-मीठे स्वाद हैं और विविध स्वरूप हैं।
फागण के दिन चार री सजणी…
सराबोर करती है फूलों की होली और गुलाल की बौछार
अनूठी है खेल-तमाशों की परंपरा
कहीं राधिका-कन्हाई बनकर होली का भरपूर आनंद उठाया जाता है, तो कहीं फूलों
की होली और गुलाल की बौछार से भक्त जन सराबोर होते हैं। लोककलाओं के अनूठे करतबों और सैकड़ों बरस से चली आ रही नाटकों, प्रहसनों और खेल-तमाशों की परंपरा कुछ अनूठी और विशिष्ट ही हैं। जन-जन इस लोक रस में भीगता है और अपने चित्त को निर्मलता के सरोवर में आकंठ डुबो देता है। फागुन है ही अलमस्ती का मौसम। जाति-धर्म की दीवारों को ढहा कर ये त्योहार मनाया जाता है।
निर्मल हास्य का त्योहार
होली त्योहार हैं वर्जनाओं से मुक्ति का, निर्मल हास्य का और खुलेपन का। अफसोस कि कुछ लोग इसे अपनी कुंठाओं और भड़ास निकालने, अश्लीलता परोसने का माध्यम बनाकर इसके स्वरूप को कलंकित कर रहे हैं। वहीं हमारे समाज का धैर्य, लगता है, जवाब देता जा रहा है। अपना विरोध और मजाक सुनने की सहनशक्ति चुक गई लगती है। हम बुरा मान जाते हैं झट। इसलिए बार-बार कहना पड़ता है – बुरा न मानों होली है।
होली त्योहार है रंगों का , उमंगों का। ढोल और चंग की थाप का। इस होली के रंग हजार हैं और फुहारें भी अनगिनत। कोई भीग रहा है अपने उल्लास में, तो कोई अपनी मस्ती में ही डूब उतरा रहा है। हालांकि समय की मार और महंगाई की कमरतोड़ धार से अब होली का आनंद पहले वाला नहीं रहा। लोगों में भी पहले जैसी दरियादिली और हास्यबोध भी कहां बचा। हंसी तो गूलर का फूल हो गई है।
लोग कृत्रिम हास्य तलाश करने के लिए लाफिंग क्लबों का सहारा ले रहे हैं, पाकों में हास्य प्राणायाम कर रहे हैं लेकिन इसमें सहज हास्य का आनंद कहां है भला। ये तो ऐसा लगता है जैसे कि हम टेसू के फूलों की जगह रासायनिक रंगों से होली मना रहे हों। हाड़ौती में भी होली के सतरंगी रूप देखने को मिलते हैं, जिनकी अपनी विशेषताएं हैं और अपना सांस्कृतिक वैभव और परंपरा भी। फागुन की आहट आते ही पूरे हाड़ौती में फागोत्सवों की धूम शुरू हो जाती है। ये पर्व है जो देश के अमीर और गरीब को एक धरातल पर आने और अहं एवं भेद की दीवारों को गिराने का एक अवसर भी देता है। खुलकर हंसने और हंसाने का भी मौका देता है। आत्म व्यंग्य को श्रेष्ठ व्यंग्य कहा गया है। बड़ा कठिन है किसी को हंसाना आजकल …और अपने पर हंसना । तौबा, तौबा… बहुत बड़ा कलेजा चाहिए उसके लिए भाई। किसी शायर ने ठीक ही कहा है – चलो किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए। । यद्यपि समय की आपाधापी में फागुन के ये लोक रंग धुंधले होते चले जा रहे हैं लेकिन फिर भी आपको राजपरिवारों में खेले जाने वाली कोड़ा मार होली के दर्शन कोटा में हो सकते हैं। अब ये अलग बात है कि आपका वहां प्रवेश हो पाएगा या नहीं। कोई बात नहीं यदि आप बरसाने के लट्ट नहीं खा सके तो हाड़ौती के कोड़े ही खा लीजिए। आप ब्रज में फागुन के रास नहीं रचा पाए तो भी कोई बात नहीं, आप सांगोद जाकर वहां के स्वांग का आनंद ले सकते हैं।
एक समय था मनोरंजन सामूहिक होता था, लेकिन अब मनोरंजन एकाकी हो गया है उसका लोक रूप टूट रहा है। इसके लिए बाजारीकरण की ताकतें जिम्मेदार हैं। पद्माकर कवि कहते हैं – बनन में बागन में बगरो बसंत है। लोक की उत्सवप्रियता सचमुच अद्भुत है, उसमें प्रकृति का सहज सौंदर्य प्रकट होता है। सांगोद में न्हाण की परंपरा लगभग 500 साल पुरानी है। देवीदेवताओं की सवारी निकलती हैं। जिसे भवानी की सवारी कहा जाता है। लोककलाओं के मनमोहक दृश्य और हैरतअंगेज कारनामे आपको अचंभित कर देते हैं।
आइए चलें कोटा से करीब सोलह किलोमीटर दूर कैथून कस्बे के विभीषण के मंदिर में, जहां धुलंडी के दिन लगभग 50 फीट ऊंचा हिरण्यकश्यप का पुतला फेंका जाता है। शायद पूरे भारत में अनोखा उदाहरण होगा ये। यहां हिरण्यकश्यप के पुतले को फेंकने का भावार्थ है कि हम अपने अंदर की नास्तिकता को फेंक रहे हैं, हम उन कलुषताओं और द्वेष को फेंक रहे हैं जो हमारे निर्बाध विकास में अवरोध पैदा करती हैं। इसी दिन से तीन दिवसीय विभीषण मेले की शुरुआत हो जाती है। विभीषण का राज्याभिषेक, कथा, भजन संध्या, कवि सम्मेलन और विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि।
कहते हैं न कि फागुनी बयार सबको मतवाला कर देती है। समाज के बंधन ढीले हो जाते हैं। और हो भी क्यों न। आखिर एक दिन तो अपने बाहरी पद, धन, प्रतिष्ठा के लबादे को हटाकर जीएं। तभी तो नजीर अकबराबादी लिखते हैं – जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की, और दफ (चंग) के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की । किशनगंज का फूलडोल लोकोत्सव आपको एक अलग अहसास से भिगो देता है। शोभायात्रा और भजन संध्या के साथ होने वाले आगाज के साथ दूसरे दिन यहां भी स्वांग और खेल तमाशे होते हैं। असल में ये हमारे जन समाज के द्वारा अपने शिष्ट विरोध और हंसी उड़ाने के सभ्य तरीक रहे हैं। इनके द्वारा व्यवस्था को चुनौती भी पेश की जाती थी और उनकी गलतियों की ओर भी इशारा। आपको होली का इनमें से कोई भी रूप रुचिकर नलगे तो आप बूंदी जिले के केशवराय पाटन के पास भीया गांव चले जाएं। धुलंडी के एक पखवाड़े बाद हूड्डा का अनूठा आयोजन, नकली कुश्तियां और अजीबोगरीब तमाशे निश्चित ही आपको मंत्रमुग्ध कर देंगे। नकली कुश्ती और भडम भडम और डू डू की आवाजें, बल्लम तथा दूसरे हथियारों का प्रदर्शन भी देखने के काबिल होता है। | कोटा के मथुराधीश जी के मंदिर में खेले जाने वाली वैष्णव होली की चर्चा तो जगत् विख्यात है। राधा-कन्हाई का ये शाश्वत स्वरूप भला कौन नहीं जानता।
तभी तो कवि कहता है – जब लगे | तन-मन जगी मद्धिम बंसती आग, रंग से उसको बुझाएं खेल होरीफाग। नयापुरा की आदर्श होली को कैसे भूला जा सकता है। इस होली
की विशेषता है होली के माध्यम से तात्कालिक सामाजिक एवं राष्ट्रीय मुद्दों की तरफ ध्यान खींचना। अपार जनसमूह इस होली के प्रतिवर्ष नूतन विषयों और आकर्षक स्वरूप तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों को देखनेसुनने जाता है। होली के दिन महामूर्ख बनाने की परंपरा भी रही है। भारतेंदु समिति की ओर से ऐसे आयोजन होते रहे हैं। विभिन्न समाजों द्वारा होली मिलन समारोहों की श्रृंखला
भी शुरू होने वाली है। ये आयोजन जहां एक ओर अपना सांस्कृतिक महत्व रखते हैं, वहीं हमारे अंदर के उत्सव भाव को एक सकारात्मक दिशा भी देते हैं। होली जिसके तमाम रंग हैं,
खट्टे-मीठे स्वाद हैं और विविध स्वरूप हैं। ये भावमय होने का त्योहार है, प्रेम का त्योहार है, तो आइए इस त्योहार पर गुनगुनाएं हम
भी-फागण के दिन चार री सजनी, फागण के दिन चार।
मद जोबनआया फागण मअं, फागण आया जोबन मों।
– डॉ. अतुल चतुर्वेदी
हाजी वारिस अली शाह की मजार हिंदू-मुस्लिम एक साथ खेलते हैं होली
पत्रिका न्यूज़ नेटवर्क
बाराबंकी. देवा शरीफ स्थित सूफी संत हाजी वारिस अली शाह की दरगाह शायद देश की पहली दरगाह होगी जहां सभी धर्मों के लोग मिलकर होली के सूफियाना रंगों में सराबोर होते हैं। जो रब है वही राम का संदेश पूरी दुनिया को देने वाले सूफी संत हाजी वारिस अली शाह की बाराबंकी की मजार पर आपसी सौहार्द के लिए होली में गुलाल की धूम होती है। हिंदू-मुस्लिम एक साथ रंग व गुलाल में डूब जाते हैं। बाराबंकी का यह बागी और सूफियाना मिजाज होली को दूसरे स्थानों से अलग कर देता है। सतरंगी रंगों के साथ यहां की फूलों की होली भी अपने आप में बेमिसाल है। | कुंतलों फूलों की पांखुड़ियों और गुलाल से यहां हिंदू मुस्लिम मिलकर होली खेलते हैं। मजार पर यह परंपरा हाजी वारिस अली शाह के जीवित रहने के समय से ही चली आ रहीं है। यहां पर इकट्झ हुए श्रद्धालुओं ने ढोल ताशे के साथ हाजी वारिस अली शाह की मजार परिसर में फूल की पांखुड़ियों और गुलाल के रंगों से जश्न मनाते हैं। हाजी वारिस अली शाह की मजार परिसर में होली में केवल गुलाब के
फूल और गुलाल से ही होली खेलने | की परंपरा है। आयोजन से एक हफ्ते
पहले से ही फूल आ जाते हैं।
सौहार्द का प्रतीक
होली उत्सव आयोजन से जुड़े और वासी देवा होली समिति के अध्यक्ष शहजादे आलम वारसी के मुताबिक बुर्जग बताते थे कि सूफी संत के जिंदा रहने के दौरान ही उनके भक्त उनको होली के दिन गुलाल और गुलाब के फूल भेंट करने के लिए आते थे। इस दौरान ही उनके साथ श्रद्धालु होली खेलते थे।
और एक खास बात है बाराबंकी के एक फकीर की । जिनके सान्निध्य में हिन्दू-मुस्लिम दोनों होली का आनंद लेते थे । ऐसे मस्त फकीर हरफनमौला हाजी वारिस अली शाह को मैं कैसे भूल सकता हूँ । बाराबंकी (u.p.) में देवा शरीफ स्थित सूफी संत हाजी वारिस अलीशाह के सान्निध्य में सभी धर्मों के लोग होली के सूफियाना रंग में रंग जाते थे । और वो परंपरा आज भी जारी है । आज ऐसे ही सूफी फकीरों की देश और दुनिया को जरूरत है ।
(राजस्थान पत्रिका, बुधवार, पेज – 10, 20/3/2019, www.patrika.org.com)
और अंत में, आज मेरी जन्मदात्री मैया का भी जन्मदिन है और उनके चरणों में भी नमन और करपुरचंद्र कुलिश का भी जन्मदिन है उन्होंने कहा है –
देह खिले और मन मिले,
मन में भरे उमंग,
बणे जिंदगी खेल तो
चढ़े न कोई रंग ।
– नारायण साँईं