हृदय महाधन है, उसकी रक्षा करनी चाहिए…

हृदय महाधन है, उसकी रक्षा करनी चाहिए…

 

(पूज्य साँईंजी के ‘ज्योत से ज्योत जगाओ’ नामक पुस्तक से संकलित)

सत्शिष्य के हृदय से निकले उद्गार हैं ये ! – ‘सद्गुरु ज्योत से ज्योत जगाओ…’ जब अंदर की ज्योत जग जाती है, तो बाहर की ज्योत फीकी हो जाती है । जिसकी वह अंदर की ज्योत जग जाती है, वह धन्य-धन्य हो जाता है । बाहर की ज्योत की तो बाती भी खत्म हो जाती है और तेल भी खूट जाता है, लेकिन एक बार यदि अंदर की ज्योत, आत्मज्ञान की ज्योत सद्गुरु जगा देते हैं, तो फिर वह ज्योत कभी नहीं बुझती, उसका तेल कभी नहीं खूटता ।

बाहर की ज्योत जगती है, तो बाहर का अंधकार दूर करती है, पर अंदर की ज्योत जगती है, तो हृदय के अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर देती है । हृदय में पड़ा हुआ अंधकार, हृदय का हीन आकर्षण, हृदय के कुसंस्कार मिट जाएँ, यही महान पुरुषार्थ है । हृदय महाधन है, कोषों का कोष है, उसकी रक्षा करनी चाहिए ।

कोषानामपि हृदयकोषं तेन रक्षितं सर्वरक्षितमिदं ।’

इस हृदय की जो रक्षा करता है, वह महान रक्षक है । हृदयरूपी कोष को प्रयत्नपूर्वक रक्षित करना चाहिए । सावधानी बनाए रखें कि कहीं हृदय में काम, क्रोध, ईर्ष्या तो नहीं पनप रहे । जिस हृदय में द्वेष, काम, क्रोध, मोह आदि विकार पनप रहें हों, उसमें शाश्वत परमात्मा का दिव्य रस कैसे प्रकट होगा ? भगवान बुद्ध के पास एक सेठ गया और कहा कि – ‘महाराज ! मुझे सत्संग का उपदेश दीजिए, आत्मज्ञान का दान कीजिए ।’

भगवान बुद्ध बोले – ‘सत्संग में आते-जाते रहो !’

सेठ बोला – ‘मुझे जल्दी आत्मज्ञान चाहिए, कोई शीघ्र उपाय बताइये ।’

भगवान बुद्ध बोले – मैं कल तुम्हारे घर भिक्षा लेने आऊँगा ।’ दूसरे दिन भगवान बुद्ध सेठ के घर भिक्षा लेने गए । लेकिन भिक्षा का पूरा पात्र गोबर से भरा था । सेठ ने कहा –महाराज ! इसमें तो पूरा गोबर भरा है, इसे पहले खाली करना होगा, पात्र को माँजना पड़ेगा, शुद्ध करना पड़ेगा, तभी खीर इसमें आ पाएगी ।’

भगवान बुद्ध ने कहा – ‘यही तेरे प्रश्न का उत्तर है । खीर को यदि पात्र में डालना है, तो गोबर को निकालना पड़ेगा, पात्र को माँजना पड़ेगा, उसके बाद ही उसमें खीर देने की बात कर सकते हो ।’ इसी प्रकार थोड़ी नि:स्वार्थ सेवा करो, जप-तप-नियम करो, सत्संग-श्रवण करो, इससे तुम्हारा अंत:करण शुद्ध होगा और आत्मज्ञान उसमें टिकेगा  ।

तो हृदय के पात्र को शुद्ध बनाना चाहिए, तभी तो आत्मज्ञान रूपी खीर उसमें टिकेगी । इस आत्मज्ञान की ऐसी महिमा है कि जिसके विषय में वेदों ने कहा – ‘नेति ! नेति !’ इस ब्रह्मपद को पाए योगी की स्थिति कौन समझ सकता है ? संसार के सारे लेन-देन, खान-पान करते हुए भी उसकी स्थिति नित्य परमात्मा में ही रहती है । परमात्मा ही श्रेष्ठ है, परमात्मा ही जानने योग्य है, परमात्मा को पाना ही परम कर्तव्य है । अपने मन, बुद्धि, इंद्रियों को नियत करके शरीर-मन-प्राणों की गति को रोककर, उनको स्थिर करके योगी उस परम तत्त्व को जानने में सफलता प्राप्त करता है ।

 

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