आज की विश्व की अजूबी घटना: जिसमें न कोई गुरु है, न कोई संस्था, न कोई फीस, और न कोई संप्रदाय
चिंग हाई के जीवन का आदर्श परम ज्ञान की खोज और उसकी प्राप्ति था । इसके लिए ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक लगा । उनकी इस बात को उनके पति ने सहर्ष स्वीकार कर लिया । ब्रह्मचर्य के पालन के लिए दोनों ने आपसी सहमति से वैवाहिक जीवन को पूर्ण विराम दिया । ऐसी घटनाएँ हिंदू और जैन धर्मग्रंथों में मिलती हैं, लेकिन आधुनिक युग में इस प्रकार की घटनाएँ बहुत दुर्लभ मानी जाती हैं ।
हमसे बिछड़े हुए ज़माना हुआ,
पर यह फिर भी कल जैसा लगता है ।
जिंदगी में चमत्कारों की कमी नहीं होती । ये चमत्कार हमारे सामने एक नए रोमांचक संसार को लेकर आते हैं । ऐसा ही एक रोमांचक चमत्कार 1999 के दिसंबर महीने में दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन में आयोजित पार्लियामेंट ऑफ वर्ल्ड रिलीजन के दौरान हुआ । ऐसा लगा जैसे वहां सभी धर्मों का मेला लगा हो । जहाँ भी नजर जाती, वहाँ किसी न किसी धर्म की झलक मिलती । हर धर्म के संत और उपदेशक अपने अनुयायियों और बैनरों के साथ मौजूद थे । लेकिन इन सबके बीच मेरा ध्यान वियतनाम की बौद्ध भिक्षुणी सुप्रीम मास्टर चिंग हाई पर गया ।
इसका कारण यह था कि वे एक पालकी में बैठकर जा रही थीं और विभिन्न देशों से आए दो हजार से भी अधिक अनुयायी उनका अनुसरण कर रहे थे । पूरा दृश्य इतना आकर्षक और मनोरम था कि स्वाभाविक रूप से उत्सुकता और उल्लास उमड़ने लगा । आज विश्व के धर्म अपने आचार-विचार और आचरण में कुछ परिवर्तन ला रहे हैं । यह सत्य है कि जो अपना अस्तित्व बनाए रखना चाहता है, उसे प्रगतिशीलता और परिवर्तन अपनाना पड़ता है । इसका प्रतिबिंब सुप्रीम मास्टर चिंग हाई में देखने को मिला । उन्होंने बौद्ध धर्म को एक आधुनिक रूप दिया और उसमें नए विचार, नई चेतना और नए आध्यात्म का प्रचार किया ।
सामान्यतः नवजागरण का संदेश देने वाले योगी पुरुष होते हैं, लेकिन यहाँ एक युवती को देखा गया जो यौवन से परिपूर्ण, तेजस्वी मुख और आकर्षक वेशभूषा में नवजागरण का संदेश दे रही थी । इस विश्व धर्म परिषद में सुप्रीम मास्टर चिंग हाई से मिलने का स्वर्णिम अवसर मिला । इसके परिणामस्वरूप उनके संपूर्ण व्यक्तित्व और विचारधारा को जानने का मौका मिला । विशेषकर आधुनिक युग की धर्म चेतना और योग दृष्टि को जागृत करने वाली एक नई पद्धति का अनुभव हुआ ।
उनका जन्म वियतनाम के औलेक शहर में एक संपन्न परिवार में हुआ था । बचपन से ही उन्हें विभिन्न धार्मिक भावनाओं का सहज परिचय मिला । उनके परिवार में धर्मों का सहअस्तित्व था । उनका परिवार कैथोलिक ईसाई धर्म को मानता था, लेकिन उनकी दादी बौद्ध धर्म की गहरी ज्ञाता थीं । इस कारण छोटी उम्र में ही चिंग हाई को बौद्ध धर्म के तत्वज्ञान और उपदेशों का रहस्य समझने का अवसर मिला । खासकर, उन्हें बौद्ध धर्म की ध्यान पद्धति सिखाई गई । उनका मूल नाम “हू डांग तिन्ह” था । बचपन से ही उनमें उत्कृष्ट गुण और उच्च विचारशीलता प्रकट होती थी । जब उनकी उम्र के अन्य बच्चे खेल-कूद में लगे होते थे, तब चिंग हाई तत्वज्ञान के ग्रंथों का अध्ययन करतीं और एकांत में उनका मंथन करतीं ।
अठारह वर्ष की उम्र में विशेष अध्ययन के लिए वे वियतनाम से इंग्लैंड, फिर फ्रांस और अंत में जर्मनी गईं । यहाँ पढ़ाई के दौरान उन्होंने रेडक्रॉस संस्था में मानवसेवा के अनेक कार्य किए । इसी दौरान उनकी मुलाकात एक जर्मन वैज्ञानिक से हुई, और चिंग हाई ने उनसे विवाह किया । इस विद्वान और विचारशील वैज्ञानिक ने दो विषयों में डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त की थी । उनके जीवन में चिंग हाई की विचारधारा का गहरा प्रभाव पड़ा । चिंग हाई के संपर्क में आकर उन्होंने मांसाहार छोड़कर शाकाहार को अपनाया । दोनों ने विभिन्न स्थानों की यात्राएँ कीं और युद्ध के कारण बेघर हुए लोगों के कल्याण कार्यों में चिंग हाई का पूरा सहयोग किया ।
चिंग हाई अपने वैवाहिक जीवन से पूरी तरह संतुष्ट थीं, लेकिन उनके अंतर की पुकार उन्हें लगातार बेचैन किए रखती थी । गृहस्थी और सेवा कार्यों से उन्हें आनंद तो मिलता था, लेकिन उनके मन में लगातार यह सवाल घूमता रहता था कि उनका जीवन-ध्येय इन सबसे कहीं अधिक ऊंचा है और इसके लिए गहन आत्म-खोज और ध्यान-साधना आवश्यक है ।
चिंग हाई ने अपने जर्मन पति से अपने अंतर के मंथन की बात साझा की । उनके पति चिंग हाई की आकांक्षाओं से भली-भांति परिचित थे । जीवन और कर्तव्य के प्रति उनकी व्यापक और वैश्विक दृष्टि से वे प्रभावित थे । वे चिंग हाई के उस सपने को जानते थे, जिसमें वे दुनिया में शांति और संतुलित मानव समाज की स्थापना करना चाहती थीं । उन्होंने अपनी आँखों से देखा था कि प्राणियों की क्रूर हत्या के दृश्य देखकर चिंग हाई की आँखों से आंसुओं की धारा बहने लगती थी ।
जीवन की इस अग्नि परीक्षा के विचित्र मोड़ पर समाधान खोजने के लिए दोनों ने एक-दूसरे से चर्चा की । उनके हृदय में एक-दूसरे के प्रति सच्चा प्रेम था, लेकिन उससे भी अधिक, दोनों को अपने उच्च जीवन-ध्येय का एहसास था । इस स्थिति ने उन्हें गहरे मंथन में डाल दिया । एक ओर उनके आपसी लगाव की भावना थी, और दूसरी ओर आध्यात्मिकता की पुकार । इस कठिन परिस्थिति पर लंबी सोच-विचार के बाद, उन्होंने प्रेमपूर्वक अलग होने का निर्णय लिया ।
चिंग हाई के जीवन का आदर्श परम ज्ञान की खोज और प्राप्ति था, और इसके लिए ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य लगा । उनके पति ने इस बात को सहजता से स्वीकार कर लिया । ब्रह्मचर्य के पालन के लिए दोनों ने परस्पर सहमति से अपने वैवाहिक जीवन को समाप्त कर दिया । ऐसी घटनाओं का उल्लेख हिंदू और जैन धर्मग्रंथों में मिलता है, लेकिन वर्तमान युग में यह अत्यंत दुर्लभ है ।
चिंग हाई ने जाग्रति और आत्म-साक्षात्कार की खोज शुरू की । उन्होंने विभिन्न देशों के ज्ञानी और ध्यान-साधकों की तलाश की । भिन्न-भिन्न प्रकार के ध्यान का स्वयं अनुभव किया । आध्यात्मिक अनुशासन के लिए कई गुरुओं से मार्गदर्शन प्राप्त किया । उन्होंने सोचा, क्या मानव जाति को कोई एक व्यक्ति पूर्ण रूप से उबार सकता है ? क्या इस दुनिया की असीम पीड़ा का अंत कोई महापुरुष कर सकता है ? और फिर उन्होंने देखा, “इस धरती पर एक से बढ़कर एक महापुरुष आए हैं, फिर भी मानव आज भी पीड़ित है ।”
इस सवाल का उत्तर खोजने के लिए चिंग हाई ने कई देशों की यात्रा की । उन्होंने अनेक आध्यात्मिक परीक्षाओं का सामना किया और कठिनाइयां सहन कीं । बौद्ध धर्म के सुरंगम सूत्र में तथागत बुद्ध द्वारा वर्णित ‘क्वान यिन ध्यान-पद्धति’ का उल्लेख उन्हें मिला, जिसे ध्यान की सर्वोत्तम विधि कहा गया है । लेकिन समय के प्रवाह में यह ध्यान-पद्धति लुप्त हो गई थी और केवल सूत्रों में इसका उल्लेख रह गया था ।
इस ध्यान-पद्धति को खोजने के लिए चिंग हाई ने कई मठों और मंदिरों का भ्रमण किया । अंततः उन्होंने हिमालय का रुख किया । वहाँ उनकी भेंट एक योगी से हुई, जिनसे उन्हें ‘क्वान यिन ध्यान-पद्धति’ प्राप्त हुई । चिंग हाई ने इसके माध्यम से साधना के मार्ग पर आगे बढ़ने का निश्चय किया ।
आखिरकार, एक ऐसा दिन आया जब उन्होंने उस आंतरिक परिवर्तन को प्राप्त कर लिया जिसकी वह खोज कर रही थीं । इस ध्यान-पद्धति के माध्यम से धीरे-धीरे पूर्ण आंतरिक जागरूकता हुई और विश्व के गूढ़ रहस्य उनके सामने प्रकट हो गए । हिमालय के पर्वतों में कुछ समय तक रहने के दौरान, नियमित ध्यान ने उन्हें नवजागृति प्रदान की । उसी समय, उन्होंने इस ध्यान-पद्धति और जीवन-दर्शन को दुनिया के सामने लाने और इसके माध्यम से मानव कल्याण के लिए काम करने का संकल्प लिया ।
मास्टर चिंग हाई की विशेषता यह है कि उनके पास दीक्षित होने वाले व्यक्ति को अपना स्वधर्म छोड़ने की आवश्यकता नहीं होती । अपनी मान्यताओं या परंपराओं का भी त्याग करना जरूरी नहीं होता। इसके लिए किसी संगठन या संस्था से जुड़ना भी अनिवार्य नहीं है । व्यक्ति अपनी जीवनशैली को बनाए रखते हुए, बिना किसी प्रकार की फीस के, यह दीक्षा प्राप्त कर सकता है । मास्टर चिंग हाई का उद्देश्य व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाना है । वह एक ऐसी जीवन-पद्धति सिखाती हैं जिसे हर व्यक्ति बिना किसी यांत्रिक उपकरण के अपने जीवन में लागू कर सकता है । इसके लिए किसी गुरु के मत या मार्गदर्शन की आवश्यकता भी नहीं होती ।
विश्व में जागरूकता फैलाने वाली यह युवा साध्वी स्पष्ट रूप से कहती हैं कि उन्हें किसी अनुयायी, भक्त, शिष्य या संगठन की आवश्यकता नहीं है । वह आपसे धन, उपहार या दान की कोई अपेक्षा नहीं रखतीं । इसलिए उनके सामने कुछ भी समर्पित करने की जरूरत नहीं होती । मास्टर चिंग हाई सिर्फ एक ही मांग करती हैं, और वह है ध्यान की नियमित और निष्ठापूर्ण साधना, जो व्यक्ति को आध्यात्मिक ऊंचाइयों तक ले जाने में सक्षम हो ।
प्रसंग कथा :
कब रुकेगा महिलाओं का अपमान ?
एक यात्री यात्रा करते-करते एक गाँव में पहुँचा । गाँव के किनारे पर पटेल का घर था । पटेल सीधे-सादे और भले इंसान थे ।
यात्री ने कहा, “अगर अनुमति हो तो ओसारे (चबूतरे) पर थोड़ी देर आराम कर लूँ ।”
पटेल बोले, “बैठो भाई ! चबूतरा कहाँ घिस जाएगा ?”
यात्री को लगा कि व्यक्ति नेकदिल है । उसने कहा, “अगर कुछ बिछाने को मिल जाए तो बड़ा पुण्य होगा ।”
पटेल बोले, “बिछाने को देता हूँ । बिछाने-ओढ़ने से कपड़ा खराब नहीं हो जाता और हो भी जाए तो नदी माँ है, धो देंगे ।”
यात्री ने ओसारे पर डेरा जमा लिया ।
“अगर कुछ बर्तन-चूल्हा दे दो तो खुद पका लूँगा । धोकर वापस कर दूँगा ।”
पटेल ने कहा, “हाँ-हाँ, बर्तन बहुत हैं । उपयोग करो भाई !”
बर्तन दिए गए, तो यात्री ने कहा, “थोड़ी दाल-चावल दे दो । खिचड़ी बना लूँगा । जल्दी पक जाएगी और ज्यादा बर्तन खराब भी नहीं होंगे ।”
पटेल ने दाल-चावल भी दे दिए । यात्री ने खिचड़ी पकाकर खाई ।
तभी पटेल की सोलह साल की बेटी बाहर आई । पूरा घर भलाई का अवतार था ।
यात्री ने उससे बातचीत शुरू की और पता चला कि वह अविवाहित है ।
कुछ समय बाद पटेल बाहर आए । यात्री ने उनसे कहा, “बेटी तो पराया धन है । मैं बिना धन का आदमी हूँ । आप उदार हैं, मुझे…”
पटेल ने डंडा लिया ( उन्होंने डांटा और ) और फटकारा । फटकार लगाई । यात्री को समझ आ गया कि ऐसी बेमतलब की बातों का क्या अंजाम होता है ।
इस घटना का स्मरण हमें इसलिए हुआ क्योंकि हमारे देश में ऐसी ‘लूली की लप’ (बेमतलब की बातें) करने की आदत काफी फैली हुई है ।
नेता भले कुछ काम न करें, पर बोलने में पीछे नहीं रहते । खासकर, जब कोई महिला उम्मीदवार के रूप में खड़ी होती है, तो वे वाणी विलासित करने लगती है । यह 21वीं सदी है, लेकिन नारी के प्रति ऐसी ओछी मानसिकता के साथ बदलाव की कितनी उम्मीद रखी जा सकती है ?
देश में ‘बेटी बचाओ’ अभियान चल रहा है, लेकिन वास्तव में ऐसी घटिया मानसिकता वाले नेताओं की बेकार की बकवास को सबक सिखाने की जरूरत है । महिलाओं का अपमान और तिरस्कार करने का सिलसिला देश में बिना किसी रोक-टोक के जारी है । और समाज, ऐसे नेताओं को सहन करता है, जबकि जागरूक नागरिक चुप्पी साधे रहते हैं ।