साँई श्री लीलाशाहजी महाराज
(प्राकट्य दिवस विशेष)
(परम पूज्य साँई लीलाशाहजी की जीवनी
’जीवन सौरभ’ पुस्तक के कुछ अंश )
ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों की परंपरा आज भी जीवित है, सद्गुरु स्वामी रामानंदजी महाराज की परंपरा अपने सत्शिष्य संत कबीरदासजी पंथ से लेकर पूज्य संत श्री आशारामजी बापूजी जैसे महापुरुषों तक की ये संत परंपरा आज भी सजीव है ।
ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों की संत परंपरा हम आज भी प्रत्यक्ष देख सकते हैं, हमारी गुरु परंपरा कुछ इस प्रकार है :
1 श्री राघवानंदजी महाराज
2 स्वामी रामानंदजी
3 संत कबीर दासजी महाराज
4 संत कमाल साहिब
5 श्री दादू दीनदयालजी महाराज
6 स्वामी निश्चलदासजी महाराज
7 स्वामी केशवानंदजी महाराज
8 स्वामी लीलाशाहजी महाराज
9 पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
10 पूज्य श्री नारायण साँईंजी
साँईं लीलाशाहजी के कुछ संस्मरण…
15 जून 1958, कानपुर के सत्संग में एक साधक ने प्रश्न पूछा : ‘स्वामीजी ! जीवात्मा और परमात्मा में भेद क्यों दिखता है?’
पूज्य बापू ने एक छोटा-सा किन्तु सचोट उदाहरण देकर सरलता से जवाब देते हुए कहाः
‘सच्चे अर्थों में जीवात्मा और परमात्मा दोनों अलग नहीं हैं । जब जीवभाव की अज्ञानता निकल जायेगी और माया की तरफ दृष्टि नहीं डालोगे तब ये दोनों एक ही दिखेंगे । जिस प्रकार थोड़े से गेहूँ एक डिब्बे में हैं और थोड़े से गेहूँ एक टोकरी में हैं और तुम बाद में ’डिब्बे के गेहूँ और टोकरी के गेहूँ’ इस प्रकार अलग-अलग नाम देते हो परन्तु यदि तुम ’डिब्बा’ और ’टोकरी’ ये नाम निकाल दो तो बाकी जो रहेगा वह गेहूँ ही रहेगा ।‘
दूसरा एक सरल दृष्टांत देते हुए पूज्यश्री ने कहाः
‘एक गुरु के शिष्य ने कहा ’बेटा ! गंगाजल ले आ।’ शिष्य तुरन्त ही गंगा नदी में से एक लोटा जल भरकर ले आया और गुरुजी को दिया । गुरुजी ने शिष्य से कहा ः
’बेटा ! यह गंगाजल कहाँ है? गंगा के जल में तो नावें चलती हैं। इसमें नाव कहाँ है? गंगा में तो लोग स्नान करते हैं। इस जल में लोग स्नान करते हुए क्यों नहीं दिखते?’
शिष्य घबरा गया बोलाः ’गुरुजी ! मैं तो गंगा नदी में से ही यह जल लेकर आया हूँ।’
शिष्य को घबराया हुआ देखकर गुरुजी ने धीरे से कहा : ’बेटा ! घबरा मत । इस जल और गंगा के जल में जरा भी भेद नहीं है । केवल मन की कल्पना के कारण ही भिन्नता भासती है । वास्तव में दोनों जल एक ही हैं और इस जल को फिर से गंगा में डालेगा तो यह गंगा का जल हो जायेगा और रत्तीभर भी भेद नहीं लगेगा ।
इसी प्रकार आत्मा और परमात्मा भ्रान्ति के कारण अलग-अलग दिखते हैं, परन्तु दोनों एक ही हैं ।’
घट में स्थित आकाश को घटाकाश कहा जाता है और मठ में स्थित आकाश को मठाकाश कहा जाता है । इन दोनों से बाहर जो व्यापक आकाश है वह महाकाश कहलाता है । घट और मठ की उपाधि से घटाकाश और मठाकाश कहलाता है । वास्तव में घटाकाश और मठाकाश महाकाश से भिन्न नहीं है । घट टूट जाने के बाद घटाकाश महाकाश में मिल जाता है । घट की उपस्थिति में भी घटाकाश महाकाश से मिला हुआ ही है लेकिन घट की उपाधि के कारण घटाकाश महाकाश से अलग होने की भ्रांति होती है ।
विनोद के क्षणों में
पूज्य बापूजी अपने गुरुदेव के बारे में बताते हैं कि पूज्य गुरुदेव कुटीर में अकेले रहते थे । कई बार कुटीर का दरवाजा बन्द होता किन्तु ऐसा लगता कि पूज्यश्री अन्दर किसी के साथ बात कर रहे हैं। उस वक्त मैं नया-नया था । दोपहर के समय उनके भोजन का टिफिन उनकी कुटिया में पहुँचता तब कुटिया के अंदर से बातचीत सुनाई पड़ती ः
‘लीला (शाह) ! रोटी खायेगा ।‘ मैं सोचता कि पूज्यश्री को केवल ’लीला’ कहकर बुलानेवाला कौन पैदा हुआ है? किन्तु एक दिन यह रहस्य खुल गया । यह संवाद चल रहा था और किसी काम से पूज्यश्री ने मुझे अन्दर बुलाया । मैंने अन्दर जाकर देखा तो कुटिया में उनके सिवाय दूसरा कोई न था ।
तब मुझे समझ में आया कि स्वामीजी अपने शरीर को अपने से पृथक मानकर, उससे विनोद-वार्ता करके फिर भोजन का श्री गणेश करते थे । भोजन सामने रखकर वे अपने शरीर से वार्तालाप करते :
‘बेटा ! भूख लगी है? रोटी खायेगा?‘
फिर खुद ही शरीर की ओर से अपने-आपको जवाब देते :
‘आप मुझे खिलाएँगे तो खाऊँगा और रोटी खाऊँगा तभी जिऊँगा ।‘
‘तू अन्न से जीता है और मैं?‘
‘महाराज ! आप तो जीवन देनेवाले हैं ।‘
‘अच्छा, अच्छा…. बेटा ! तू समझता है । आज सत्संग सुना है न? तभी तुझे रोटी खाने को मिलेगी । बोल, कितनी रोटी खायेगा?‘
‘साँई ! तीन रोटी तो चाहिए ही ।‘
‘सत्संग पचाकर सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, इन तीनों गुणों से पार होगा तो ही तीन रोटियाँ तुझे खाने को मिलेंगी । बोल, ठीक है न?‘
‘हाँ साँई ! ठीक है। मैं तीनों गुणों से पार हो जाऊँगा ।“शाबाश बेटा ! तो ले, अब रोटी खा ले ।‘
इस प्रकार वे अपने-आप से विनोद-वार्ता किया करते थे । गुणातीत अवस्था में विचरनेवाले महापुरुष जो कुछ बोलते हैं, जो कुछ करते हैं, उन्हें समझना सामान्य मनुष्य की बुद्धि से परे की बात है । ज्ञानी को पहचानना बहुत कठिन है । ज्ञानी को समझने के लिए दूसरा ज्ञानी होना पड़ता है । तुम जिसे पहचानकर सारा व्यवहार करते हो, वह तो स्थूल शरीर है जबकि ज्ञानी तो स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीर से परे होते हैं । इसीलिए कई बार संतों का व्यवहार सामान्य बुद्धि की समझ में नहीं आता । उनकी दृष्टि व्यापक होती है । वे मन एवं इन्द्रियों से परे आत्मसत्ता में स्थित होते हैं ।
पूज्य स्वामीजी अपने शरीर को अपने से पृथक मानकर जो विनोद करते उस विनोद-लीला को कोई विरला साधक ही समझ पाता । शरीर को ’मैं’ मानने की जो भ्रान्ति जीव को हुई है उस भ्रान्ति को निकालने के लिए पूज्य स्वामीजी ने अपने साधनाकाल में यह आदत डाली थी । फिर सिद्ध अवस्था में भी विनोद करके अपनी इस आदत को दोहराया करते थे ।