शक्ति की आराधना का पर्व नवरात्रि
समस्त ब्रह्मांड में मोक्षलोक भूलोक माना गया है और भूलोक में भारत वर्ष, भारत वर्ष में भी सनातन धर्म । सनातन धर्म में छ रूपों में परमेश्वर की आराधना-उपासना होती है । जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य के अनुसार शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य, विष्णु तथा निराकार ब्रह्म । वेद, पुराण, रामायण, महाभारत एवं सभी उपनिषदों में इनके रहस्य चरित्र और उपासना के बारे में विस्तृत वर्णन हमारे ऋषि-मुनियों ने किया है । शास्त्रों में अपने-अपने आराध्य स्वरूप को बड़ा माना है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि अमुक स्वरूप में परमेश्वर बड़ा है और अमुक स्वरुप में कनिष्ठ । तात्पर्य है उपासक अपने इष्ट में अपनी निष्ठा को दृढ़ कर रहा है, इनका परस्पर भेद नहीं कर रहा है । स्वयं विष्णु भगवान का वचन है –
ज्ञानं गणेशो मम चक्षुः अर्कः शिवो ममात्मा मम शक्तिः आद्या ।
विभेद बुद्धया मयि ये भजन्ति मामंग्हीन कलयन्ति मन्दाः ॥
अर्थात् गणेश मेरा ज्ञान है, सूर्य मेरे नेत्र हैं, शिव मेरी आत्मा तथा आद्या शक्ति भगवती मेरी शक्ति है । जो भेदभाव करके मेरी उपासना करते हैं, वे बुद्धिहीन मुझे अंगहीन समझते हैं । अतः छ स्वरूपों में कोई भेद नहीं है ।
‘कलौ चण्डी विनायको’ के अनुसार कलियुग में भगवती दुर्गा एवं विघ्नहर्ता गणेशजी की आराधना का अधिक महत्त्व बताया है । उसमें भी सर्वप्रथम जगदंबा का ही उल्लेख है । माँ भगवती पुरुषार्थ चतुष्ट्य प्रदाता हैं । जगत्जननी जगदंबा परमेश्वर की शक्तियों में से एक हैं । भारत के मनीषियों ने वेद, पुराणों के आधार पर यह सुनिश्चित सिद्धांत स्थिर किया है कि समस्त विश्व का उद्भव, धारण एवं लय शक्ति के द्वारा ही, शक्ति में होता है । अर्थात् ‘समस्त विश्व महाशक्ति का ही विलास है’ यथा – ‘सर्वे खल्विदमेवाहंनान्य दस्तिसनातनम्’ समस्त विश्व मैं ही हूँ, मुझसे भिन्न सनातन या अविनाशी तत्त्व दूसरा कोई नहीं है । ये साक्षात् जगत्जननी जगदंबा के वचन हैं । ‘शक्ति’ अर्थात् जो निर्विशेष शुद्ध तत्त्व संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है, उसीको पुरुषत्व रूप में ‘चित’ और स्त्रीत्व रूप में ‘चिति’ कहा गया है । निर्मल चेतन और शुद्ध चिति एक ही तत्त्व हैं, पृथक-पृथक नहीं । इस तत्त्व की पुरुष रूप में उपासना की जाती है, तब उसे ईश्वर, शिव आदि नामों से पुकारते हैं । जब स्त्री रूप में उपासना करते हैं, तो उसी तत्त्व को ईश्वरी दुर्गा आदि नामों से पुकारा जाता है । यथा – गौरीशंकर, सीताराम, राधेश्याम आदि इनमें किसी प्रकार से भेद नहीं किया जा सकता ।
शक्ति की उपासना कब की जाती है ?
देखिये दुर्गा सप्तशती के द्वादश अध्याय में माँ भगवती के स्वयं के वचन – ‘शरत्काले महापूजा क्रियते या च वार्षिकी । तस्या ममैतन्माहात्म्य श्रुत्वा भक्ति समन्वित ।’ शरद ऋतु में अर्थात् नवरात्रि में यहाँ ‘च’ अव्यय का चमत्कार देखिये ‘नव वर्षारंभ’ अर्थात् चैत्र के नवरात्रि में वार्षिकी नवरात्रि एवं शरद् ऋतु में शारदीय नवरात्रि में जो मेरी पूजा की जाती है और श्रद्धा-भक्ति पूर्वक मेरे देवी- महात्म्य का पाठ या श्रवण करता है तो – ‘सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो धन धान्य सुतान्चितः । मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः ॥’ नि:संदेह मेरी कृपा से मनुष्य सभी प्रकार की बाधाओं से मुक्त होता है और धन-धान्य, पशु-पुत्रादि संपत्ति से संपन्न हो जाता है ।
परब्रह्म से अभिन्न आदिशक्ति पराम्बा की उपासना इसीलिए की जाती है कि वह हमें भुक्ति और मुक्ति दोनों प्रदान करें । उपर्युक्त श्लोकों में करूणामयी माँ अपने श्रीमुख से सभी प्रकार के भोग प्रदान करने का वचन दे रही है । रही मुक्ति की बात तो पराम्बा जगत्जननी होने से अपनी सन्तति को मुक्ति तो देगी ही, चाहे हम उसके योग्य हैं अथवा अयोग्य, यथा – ‘कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।’ माँ होने के नाते हमें मुक्ति तो देगी, यह हमारा दृढ़ विश्वास है ।
शरत्काल में शारदीय नवरात्रि एवं वर्षारंभ में वार्षिकी (चैत्र मास में) वासन्ती नवरात्रि इन दोनों में ही देवी-महात्म्य के पाठ के विषय में जो बताया गया है, वह विचारणीय है । देवी-महात्म्य को दुर्गा सप्तशती के रूप में सभी जानते हैं और यह भी हम सभी जानते हैं कि सुमेधा ऋषि ने राजा सुरथ एवं समाधि नामक वैश्य को सात सौ श्लोकों (मंत्रों) के इस ग्रंथ में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के तीन चरित्र बताये हैं ।
नवरात्रि और नवार्ण-मंत्र जप
अब शेष है नवरात्रि और नवार्ण-मंत्र जप । इनमें नवरात्रि पर विचार करें । नव+रात्र दो शब्द है । ‘नव’ शब्द संख्यावाचक और रात्र का अर्थ है रात्रि-समूह, इस ‘नवरात्रि’ शब्द में संख्या और काल का अनोखा संगम है – ‘नवाना रात्रीणा समाहारः इति नवरात्रिम् ।’ यह द्विगु समासान्त शब्द है । इस प्रकार इस शब्द से विश्व के रचयिता तथा पालनकर्ता रूप अग्निषोमात्मक द्वन्द्र (मिथुन) होने की पुष्टि होती है । नवरात्रि में अखंड दीपक जलाकर हम अपनी इस नव संख्या पर रात्रि का जो अंधकार छा गया है, उसे हटाकर ‘विजयादशमी’ के रूप में आत्म विजय का उत्सव मनाते हैं ।
वस्तुत: नव संख्या अखंड अविकारी ब्रह्म है । देखिये 9 संख्या का अखंड रूप 9ु9 = 81 अर्थात् 8+1=9, 8ु9 = 729 अर्थात् 7+2+9=18 यानी 8+1=9 अर्थात् नौ को नौ से गुणा करें फिर उस गुणन फल को जोड़ें, लाखों तक इस प्रकार गुणा करते चलो, पुनः अकों को जोड़ते ही चलो, अंत में आप 9 का ही अंक प्राप्त करोगे । इससे स्पष्ट होता है ‘नव’ संख्या अखंड है । इस प्रकार नवरात्रि को हम अखंड एवं अविकारी नवरात्रि के रूप में ही प्राप्त करेंगे । अत: नवरात्रिी में ही भगवती पराम्बा की उपासना श्रेयस्कर है ।
नवरात्रि में नौ दिन पर्यन्त जगदंबा के नव स्वरूप (नव दुर्गा) की आराधना का विधान है । प्रथम दिन शैलपुत्री, दूसरे दिन ब्रह्मचारिणी, तृतीय दिवस चंद्रघंटा, चतुर्थ दिवस कूष्माण्डा, पंचम दिवस स्कन्दमाता, षष्ठम दिवस कात्यायनी, अष्टम दिवस महागौरी, सप्तम दिवस कालरात्रि एवं नवम दिवस सिद्धिदात्री । इस प्रकार नव दिवस पर्यन्त भगवती के नौ अलग-अलग स्वरूपों की उपासना की जानी चाहिए ।
नवार्ण मंत्र का स्वरूप एवं महत्त्व
दुर्गा उपासना में ‘नवार्ण मंत्र’ शक्ति उपासकों का मुख्य आलंबन है । ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै’ यह है नवार्ण मंत्र । मनन करने से जो त्राण (रक्षा) करता है उसे मंत्र कहते हैं । मंत्र अत्यन्त गोपनीय होता है । इस मंत्र में जिन वर्णों का गुम्फन मंत्र सृष्टा ऋषिवर ने किया है, वह पूर्णत मनोवैज्ञानिक है ।
प्रथम तो इस मंत्र में गुम्फित वर्णों की गणना करें । ऐं+ह्रीं+क्लीं +चा+मु+ण्डा+यै+वि+च्चै इन वर्णों की संख्या नौ है । इसीलिए इस मंत्र को नवार्ण मंत्र कहा गया है । इसमें स्वर रहित व्यंजनों की गणना करने पर भी संख्या प्राप्त होती है । अत: नवार्ण मंत्र अविकारी है । यही विशिष्टता है इस मंत्र में, जिसके भावनात्मक जप से अपने आराध्य से साक्षात्कार होता है । ‘ऐं’ में ‘ऐ’ का अर्थ सरस्वती और बिन्दु का अर्थ दुःखनाशक है । ‘ह्रीं‘ भुवनेश्वरी बीज के व्याज से महालक्ष्मी की स्तुति रूप बीज माना गया है । ह् ई एवं बिन्दु ये चार अंग हैं ‘ह्रीं‘ में जिसका का अर्थ है दारिद्—यनाशक लक्ष्मी धन व शक्ति दाता हैं । ‘क्लीं‘ कृष्ण (काली) या काम बीज है । इसमें क ल ई और बिन्दु ये चार अंग ‘क्लीं‘ में है अर्थात् काली स्वरूपा हमें तुष्टि एवं पुष्टि प्रदान करें । ‘चामुण्डायै‘ चामुण्डा देवी को (चतुर्थी में द्वितीया आर्य है) विच्चे विद्=विद्म अर्थात् जानते हैं ‘व‘ अर्थात् चिंतन करें, नमन करें या जाने अर्थ प्रकट होता है ।
मंत्र का पूर्ण अर्थ है – ‘हम महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती रूपी तीनों शक्तियों से विशिष्ट तथा सत् चित् आनंद स्वरूपा योगमाया को प्राप्त करने के लिए आराधना द्वारा उसे जानते हैं, नमन करते हैं । अत स्पष्ट है नवदुर्गा ब्रह्म स्वरूपा ही हैं । ब्रह्म व शक्ति में कोई भेद नहीं है । इसलिए नवरात्रि में इस नवाक्षरी मंत्र का जप श्रद्धा एवं विश्वास पूर्वक करने से भगवती कृपा करती हैं । नवरात्रि में नवार्ण मंत्र-जप अनंत फलदायक है ।
आज विश्व में सर्वत्र भीषण अशांति छाई हुई है । लोग रोग-शोक ग्रस्त हैं । हिंसा, भ्रष्टाचार आदि प्रवृत्तियाँ दिनोदिन बढ़ती जा रही हैं । सभी विकास के नाम पर महाविनाश की तैयारी में ही लगे हैं । कारण मात्र एक ही है, शक्ति आराधना से विमुख होना । हम नवरात्रि में (वासन्ती/शारदीय) पूर्ण निष्ठा, श्रद्धा एवं विश्वास के साथ नौ दिन तक शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि के पश्चात् अखंड दीप जलाकर, यथाशक्ति एवं ज्ञान से पंचोपचार, षोड्षोपचार द्वारा देवी पूजन करके कुशासन या ऊर्णासन पर बैठकर देवी-महात्म्य का पाठ एवं नवार्ण मंत्र का जप करें । भगवती की कृपा से समस्त मनोकामना पूर्ण होगी । संतति को माँ संतप्त देख ही नहीं सकती हैं, वे करूणामयी माँ हैं । जगत्जननी हैं । माँ तो बस माँ होती है ।
नवरात्रि में उपवास का महत्त्व
नवरात्रि में माँ दुर्गा की पूजा-उपासना के साथ-साथ उपवास का भी प्रावधान है । उपवास हमारे तन-मन को स्वस्थ रखता है और हमें जीवन में संयम रखना भी सिखाता है । नवरात्रि में देवी भगवती को हम नौ रूपों में पूजते हैं । उनकी स्तुति करते हैं । चैत्रमास की शुक्लपक्ष प्रतिपदा तिथि से भारतीय संस्कृति में नव वर्ष का भी शुभारम्भ होता है । मान्यता है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन सौरमण्डल में पृथ्वी की उत्पत्ति हुई थी । ब्रह्माजी द्वारा सृष्टि का शुभारम्भ भी इसी दिन को मानते हैं ।
नवरात्रि में भक्तजन व्रत के विधि-विधान को लेकर बड़े उत्सुक एवं जिज्ञासु होते हैं, लेकिन विधान वही चुनना चाहिए जिसका आप आसानी से पालन कर सकें । वस्तुतः उपवास रखना ही सम्पूर्ण व्रत नहीं है, बल्कि व्रत का अर्थ है संयम का अभ्यास । उपवास या फलाहार हमारी काया को शुद्ध करता है, तो उपवास में लिये गये संकल्प हमारे मन को निर्मल करते हैं, नवरात्रि व्रत का मूल उद्देश्य है इन्द्रियों का संयम और आध्यात्मिक शक्ति का संचय । वस्तुतः नवरात्रि अन्तःशुद्धि का महापर्व है । आज वातावरण में चारों तरफ विचारों का प्रदूषण है । ऐसी स्थिति में नवरात्रि का महत्त्व और भी अधिक बढ़ जाता है । नवरात्रि के समय प्रकृति में एक विशिष्ट ऊर्जा होती है, जिसको आत्मसात् कर लेने पर व्यक्ति का कायाकल्प हो जाता है । व्रत में हम कई चीजों से परहेज करते हैं और कई वस्तुओ को अपनाते हैं ।
आयुर्वेद की धारणा है कि पाचन क्रिया की खराबी से ही शारीरिक रोग होते हैं, क्योंकि हमारे खाने के साथ जहरीले तत्त्व भी हमारे शरीर में जाते हैं । आयुर्वेद में माना गया है कि व्रत से पाचन प्रणाली ठीक होती है । व्रत उपवास का प्रयोजन भी यह है कि हम अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण कर अपने मन-मस्तिष्क को केन्द्रित कर सकें ।
मनोविज्ञान यह भी कहता है कि कोई भी व्यक्ति व्रत-उपवास एक शुद्ध भावना के साथ रखता है । उस समय हमारी सोच सकारात्मक रहती है, जिसका प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है, जिससे हम अपने भीतर नई ऊर्जा महसूस करते हैं । आयुर्वेद में शारीरिक शुद्धि के लिए पंचकर्म का प्रावधान भी नवरात्रि में है । इस समय प्रकृति अपना स्वरूप बदलती है । वातावरण में एक अलग-सी आभा देखने को मिलती है । पतझड़ के बाद नवीन जीवन की शुरूआत, नई पत्तियों और हरियाली की शुरूआत होती है । सम्पूर्ण सृष्टि में एक नई ऊर्जा होती है । इस ऊर्जा का सकारात्मक उपयोग करने के लिए व्रतों का संयम-नियम बहुत लाभ पहुँचाता है । नवरात्रि में कृषि-संस्कृति को सम्मान दिया है । मान्यता है कि सृष्टि की शुरूआत में पहली फसल जौ ही थी । इसलिए इसे हम प्रकृति (माँ शक्ति) को समर्पित करते हैं । हमारी संस्कृति में देवी को ऊर्जा का स्रोत माना गया है । अपने भीतर की ऊर्जा जगाना ही देवी उपासना का मुख्य प्रयोजन है । दुर्गा पूजा और नवरात्रि मानसिक-शारीरिक और आध्यात्मिक शक्ति का प्रतीक है । इन सबके मूल में है मनुष्य का प्रकृति से तालमेल जो जीवन को नई सार्थकता प्रदान करता है ।