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पेड़ों में वैरागी है वट का वृक्ष, बदलती दुनिया में स्थायित्व का भी प्रतीक !
भारत में बहुधा पेड़ों को किसी देवी-देवता से जोड़कर पूजा जाता है। उदाहरणार्थ, आम का पेड़ कामदेव से जुड़ा है, तुलसी का पौधा विष्णु को प्रिय है, बिल्व शिव पूजा से जुड़ा है, दुर्वा घास की पत्तियां गणेश को अर्पित की जाती हैं, नीम की पत्तियां देवी मां को प्रिय हैं और नारियल व केले के पेड़ लक्ष्मी से जुड़े हैं।
बरगद के पेड़ यमदेव से जुड़े हैं। यह मान्यता है कि वेताल और पिशाच उसकी शाखाओं से लटकते हैं। भारत में बरगद के पेड़ को वट वृक्ष भी कहते हैं। वर्गीकरण विज्ञान के अनुसार इस पेड़ का नाम फ़ायकस बेंगालेंसिस है और यह फिग परिवार का है। विश्वभर में कई प्रकार के फिग के पेड़ों में से कुछ पूजनीय हैं। फायकस रिलिजीओसा अर्थात पीपल का पेड़ बौद्ध काल में बहुत लोकप्रिय हुआ, क्योंकि शाक्य वंश के सिद्धार्थ गौतम ने उसी के नीचे निर्वाण प्राप्त किया था।
वट का वृक्ष अपने नीचे कुछ भी उगने नहीं देता। इस प्रकार वह पुनर्जन्म और नवीनीकरण नहीं होने देता। वह छाया देता है, पर पोषण नहीं करता। इसलिए विवाह और जन्म जैसे समारोहों में उसका समावेश नहीं किया जाता। इन समारोहों में केले, आम, नारियल, सुपारी, चावल और यहां तक कि घास जैसे अन्न देने वाले, शीघ्र नवीनीकरण करने वाले छोटी जीवन अवधि के पेड़-पौधों का समावेश होता है।
विवाह और जन्म जैसी महत्वपूर्ण घटनाएं जीवन में अस्थिरता से जुड़ी हैं। वट वृक्ष इसके बिलकुल विपरीत है। उसकी लंबी आयु के कारण ऐसे लगता है कि वह अमर है। उसकी जड़ें शाखाओं से नीचे की ओर उगती हैं और पेड़ को धरती का सहारा मिलता है। अंततः ये जड़ें तना बन जाती हैं, जिस कारण सैकड़ों वर्षों बाद जड़ और तने में हम भेद नहीं कर सकते।
भारत में प्राचीनकाल से ऋषि जीवन और उसमें सभी वस्तुओं की क्षणभंगुरता से अवगत थे। इसलिए अमरत्व की धारणा उत्पन्न करने वाली वस्तुएं शुभ मानी जाने लगीं, जैसे अमर पहाड़, अमर सागर, अमर हीरा और अनश्वर राख। बाकी सब कुछ नश्वर है- हर पौधा, हर प्राणी, यहां तक कि हर क्षण भी। एक क्षण में ही वर्तमान अतीत बन जाता है। निरंतर बदलते विश्व में हम स्थायित्व चाहते हैं। इसीलिए वट वृक्ष को पूजा जाता है; सदाबहार और छायादार होने के कारण वह सभी को जीवन की अनिश्चितता से मुक्त करता है।
इस प्रकार, भारतीय विचारधारा में दो तरह की पवित्रताएं हैं- एक नश्वर सांसारिक सत्य से और दूसरी स्थायी आध्यात्मिक सत्य से जुड़ी है। केले और नारियल के पेड़ पहली पवित्रता के, जबकि वट वृक्ष दूसरी पवित्रता का प्रतीक है। केला मांस का भी प्रतीक है, जिसका निरंतर अंत होता है और जो निरंतर अपने आप का नवीनीकरण करता है। वट वृक्ष आत्मा जैसे है, जिसका न अंत होता है और जो न अपने आप का नवीनीकरण करता है। केला गृहस्थ का जबकि वट वृक्ष वैरागी का वानस्पतिक समरूप है।
वट वृक्ष को पेड़ों में वैरागी माना जा सकता है; जैसे वैरागी बच्चों को जन्म देकर परिवार का पोषण नहीं कर सकता, वैसे वट वृक्ष गृहस्थी को सहारा नहीं दे सकता। वह लोगों की भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक आकांक्षा का प्रतीक है। कहते हैं कि वह अमर अर्थात अक्षय है, जो प्रलय के बाद भी जीवित रहता है।
देह और सांसारिक विश्व को त्यागकर केवल आत्मा को चाहने वाले भारतीय ऋषि वट वृक्ष के नीचे बैठते थे। वट वृक्ष भटकते साधुओं को सबसे प्रिय था। सर्वश्रेष्ठ वैरागी यानी शिव को बहुधा वट वृक्ष की छाया में लिंगम के रूप में दिखाया जाता था। शिव गृहस्थ नहीं थे; वे भूतों से नहीं डरते थे और इसलिए इस अमर पेड़ की छाया में सहजता से रहते थे।
विवाहित जीवन में अमरत्व का बंधन
महाभारत में सावित्री नामक महिला की कहानी है। उसके भाग्य के अनुसार विवाह के एक वर्ष के बाद उसके पति का वट वृक्ष के पास निधन हो जाता है। सावित्री ने यमदेव का यमलोक तक पीछा किया और अपने संकल्प और बुद्धिमत्ता से अपने पति को उनसे बचा लिया। इस घटना की स्मृति में हिंदू महिलाएं वट वृक्ष की सात प्रदक्षिणा कर उस पर डोर बांधती हैं। वे अमर पेड़ की प्रतीकात्मक प्रदक्षिणा करके अपने विवाहित जीवन में अमरत्व बांध रही हैं। वे अपने पति, अपनी गृहस्थी के आधारस्तंभ का जीवन सुरक्षित कर रही हैं।