अध्यात्म की दुनिया तो एकदम निराली है। उसमें तुम्हारी चाल या शैली के साथ कोई लेना-देना नहीं है। जन्मों-जन्मों तक रात-दिन दौड़ा जाये तब भी कभी पहुँचा नहीं जा सकता और कुछ लोग तो आँखे खोलते ही पलकभर में पहुँच जाते हैं।
अध्यात्म के जगत् में तुम कितना दौड़ते हो यह बिलकुल जरूरी नहीं है परन्तु तुम समझते कितना हो वही महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि जो समझता है उसे कहीं जाना ही नहीं है। जहाँ वह खड़ा है, वहीं उसकी मंजिल है।
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