साहित्य की विलक्षण शक्ति…

(विश्व पुस्तक दिवस – 23 अप्रैल)

साहित्य आनंद देता है, जानकारी देता है, निराशा में नव उत्साह देता है आदि आदि तो सही है ही, लेकिन साहित्य किसी के प्राण बचाये ये तो अद्भुत है, विस्मित करनेवाला है ।

महान ब्रिटिश लेखिका, जो रहस्य कथा लेखिका के रूप में जानी जाती है, उनके उपन्यास ने एक बच्ची के प्राण बचाये थे, ये आप जानते हैं ? लेखिका, अगाथा क्रिस्टी ने धी पेल होर्स (फीका घोड़ा) में थालियन पोइजनिंग के लक्षणों का एकदम बारीकी से वर्णन किया है । 1977 में इसी तरह के लक्षणोंवाली एक बच्ची का केस लंदन डॉक्टरों के सामने आया । वे सारे हतप्रभ हो गए, लेकिन उस बच्ची की चिकित्सा से जुड़ी एक नर्स अगाथा का उपन्यास पढ़ती थी । पढ़ते-पढ़ते उसे समझ में आया कि बेबी के रोग लक्षण थालियन पोइजनिंग के हैं । उसने तुरंत ही डॉक्टरों का ध्यान इस ओर खींचा और कारण की जानकारी मिलते ही निवारण आजमाना सरल हो गया । बच्ची के प्राण बच गए !

मानना होगा कि साहित्य की ताकत विलक्षण है । साहित्य के जरिए किसी के प्राण भी बच सकते हैं । साहित्य समाज की दशा व दिशा बदल सकता है । साहित्य का सृजन होते रहना चाहिए । साहित्य से समृद्ध देश के नागरिक अवश्य प्रगति करते ही हैं । मैं, मेरा पत्र यहाँ पूर्ण करता हूँ ।

साहित्य तो वो है जो आपको संकट के समय ऊर्जा दे, मार्गदर्शन दे, वैचारिक – मानसिक शक्ति दे, समाज के वास्तविक स्वरुप को समझने के काबिल बनाए । आत्मविकास की ओर ले जाए, वही साहित्य है ।

बड़े लेखक बनना हो, तो आपको अपने लेखन से असंतोष होना जरूरी है । लिखना भरपूर लेकिन प्रकाशित करने में कंजूसी करना चाहिए । मरीज का पहला दिवान बड़ी उम्र में प्रकाशित हुआ था । राजेन्द्र शाह ने उनका पहला संग्रह 41 साल में प्रकाशित किया था । कान्त का पहला संग्रह पूर्वालाप उनकी मृत्यु के बाद आया था । जॉन एलिया का सृजन भी उनकी हयाती में बहुत ही कम प्रकाशित हुआ ।

फ्रेन्ज काफ्का ने खूब लिखा लेकिन थोड़ा-सा ही प्रकाशित हुआ । मृत्यु की बेला में वे उनका जीवन-लेखन अपने दोस्त मैक्स ब्रोड को देने गये और उनको वो सारा जला देने को कहा था । लेकिन ब्रोड ने पढ़ा तो उसको लगा कि ये तो प्रकाशित होना ही चाहिये । प्रेमिका डोरा के पास भी काफ्का का बहुत साहित्य पड़ा था, उसने भी छपाया । केवल 40 साल की उम्र में जो गुजर गये वो लेखक, शब्दों की दुनिया में अमर हो गये ।

नडियाद में गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी का म्यूजियम है । वैसे ओस्ट्रिया के प्राग में काफ्का संग्रहालय है । जर्मनी के लोगों पर काफ्का के लेखन का इतना प्रभाव पड़ा कि उन्होंयने एक शब्दर गढ़ा ‘काफ्काएस्कफ जो शब्द जर्मनी में प्रचलित बना । काफ्काएस्क मतलब  जीवन की विचित्र परिस्थिति, जिससे बच निकलने की कोई निश्चित पद्धति न हो यानी इंसान की ऐसी स्थिति, जिसमें उसके सामने कोई रास्ता नहीं दिखे और वो चारों ओर से मुश्किलों में घिरा हो… ।

आनंद शंकर ध्रुव

आनंद शंकर ध्रुव को मान गया, सचमुच – क्या कहना ! जैसे पतीली या कढ़ाई में रखे चावल, खिचड़ी का एकाध-दो दाना, पूरे बर्तन में अग्नि पर रखे उस आहार के पक्के-कच्चेपन की खबर देता है, ठीक उसी तरह किसी लेखक के एक-दो वाक्य या पैराग्राफ, गुजराती में जिसे ‘फकरो’ कहते हैं (हिंदी में परिच्छेद), पढ़कर उनकी लिखी पुस्कतें पढ़ने के लिए जी मचल उठता है । यहाँ उनके लिख दो उदाहरण जो गुजराती में छपे थे, उनका अनुवाद प्रस्तुत है ।

उदाहरण – 1

बौद्धकाल का साहित्य खिला, विस्तृत हुआ, उस समय हिंदुस्तान की प्रजा कितनी पराक्रमी थी, ये अशोक के शिलालेख से और मध्य एशिया, गांधार, तिब्बत, चीन, जावा, आदि स्थलों पर मिलनेवाले पुस्तकों, चित्रकला, स्थापत्य, निर्माण इत्यादि से सिद्ध होता है । बौद्ध ‘त्रिपिटक’ की स्थापना, ‘जातक’ की रचना, जैन शासनों का संग्रह, कौटिल्य का अर्थशास्त्र’, भारत का ‘नाट्यशास्त्र’, वात्स्यायन का ‘कामशास्त्र’, पतंजलि का ‘महाभाष्य’, अश्वघोष के कई काव्य एवं कई नाटक, गुणाढ्य की ‘बृहत्कथा’ आदि सर्वसाहित्य उस युग में प्रकट हुआ, अस्तित्व में आया ।

ई.स. दूसरी शताब्दी के बाद डेढ़ सौ वर्षों का इतिहास अँधेरे में पड़ा है, परंतु वो समय साहित्य की पतझड़ का हो तो आश्चर्य नहीं है । उसके बाद गुप्त राजाओं के समय में फिर से बहार (वसंत) आ गई । उस समय के हिंद का इतिहास इंग्लैण्ड के एलिजाबेथ के युग से भी ज्यादा तेजस्वी है । ब्राह्मण और बौद्ध के समत्व का वो समय, पुराण, स्मृति आदि धर्मशास्त्रों के पुनर्जीवन और पुनर्घटना का वो समय, बौद्ध महायान के विकास का वो समय, काव्य, कोष, ज्योतिष आदि शास्त्रों में कालिदासादि नवरत्नों के गुनगुनाहट का वो समय, वसुबन्धु आदि न्याय शास्त्राचार्यों का वो समय, जैन शास्त्रों के उद्धारक और प्रवर्तक का वो समय ।

इस समय में गुप्त राज्य की और उसके प्रभाव की सीमा एक बार तो पश्चिम में काठियावाड़ के पश्चिम तट तक और उत्तर पूर्व में तिब्बत और लगभग चीन की सीमाओं तक पहुँची थी !

(संदर्भ – अरधिसदी वांचनयात्रा-2, पेज – 49, गुजराती साहित्य परिषद् के 1928 के अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण का अंश)

आज के युवा बच्चों को क्या ये इतिहास पता है ? विद्यालयों में क्या ये नहीं पढ़ाया जाना चाहिए ?

उदाहरण -2

ज्ञान प्राप्त करने के बावजूद भी आत्मा को सुख का अनुभव नहीं होता, उसका क्या कारण है ? वेदांत का ज्ञान प्राप्त करने के बावजूद आनंद क्यों नहीं आता ?

जैसे चिकने बर्तन को जल स्पर्श नहीं कर सकता, वैसे हृदयपात्र जब तक मलिन वासना से लिपा है, तब तक ब्रह्मज्ञान रूपी अमृतजल वस्तुतः उसको स्पर्श नहीं कर सकेगा और उसका स्पर्श हुए बिना आनंद का अनुभव कैसे होगा ?

तुम पूछोगे ये वासना कैसे मिटेगी ? तो हमारे में योग, ध्यान इत्यादि को मलिन वासनाक्षय का मुख्य साधन माना जाता है । लेकिन मलिन वासना का वास्तविक क्षय शुभ वासना से उत्पन्न होनेवाले सत्कर्मों से होता है । मलिन भावों का वेग हृदय से दूर करने के लिए सही साधन शुभ कर्म हैं । कर्मों की हृदय पर व हृदय की कर्मों पर – इस तरह परस्पर असर जब हुई कि अंततः मनुष्य का समग्र स्वरुप विशुद्ध बनता है ।

– आनंद शंकर ध्रुव

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