
तुम नहीं थे तो कुछ स्वर अधूरे रह गए
सावन की काली घटा थी
पर खाली झूले रह गए
तुम नहीं थे तो
कुछ स्वर अधूरे रह गए
बह रही पुरवा पवन थी
कोयल की कू-कू खिले सुमन थे
पर मगर तुमसे प्रणय की
इच्छा अधूरी रह गई
तुम नहीं थे तो कुछ
स्वर अधूरे रह गये
मन में थी तस्वीर तेरी
और ताकते बावरे नयन थे
पर तुम न थे
उस भरी डगर में
केवल मेले रह गए
तुम न थे तो
कुछ स्वर अधूरे रह गए
पुष्प खिले थे सुगंध बिखरी थी
पर न था साथ तेरा
चांदनी थी सुंदर धरा पर
पर न था हाथ में हाथ तेरा
कंटको के इस शहर में
हम अकेले रह गए
तुम न थे तो
कुछ स्वर अधूरे रह गए।
– राकेश धर द्विवेदी
अब साथ हो लें अधूरे स्वर पूर्ण कर लें..!!