क्या आप चाहते हैं राष्ट्रशांति ? विश्वशांति ? आत्मशांति ? अगर हाँ तो आइये, शुभ मैत्री, पावन प्रेम का विस्तार करें !
बुद्ध ने कहा : मैत्री ब्रह्मविहार का प्रथम सोपान है… माँ भी मित्र हो सकती है, पिता भी । भाई-बहन भी मित्र हो सकते, बेटी भी पिता की मित्र हो सकती। आइये, हम अपना मैत्रीपूर्ण संबंध विकसित करें, एक दूसरे से वफादारी निभाएं। मैत्री और प्रेम को फैलाएं इतना कि आतंकवाद मिट जाये ! मैत्री में स्वार्थ, केल्क्युलेशन और झूठ कपट न हो ! टूटी हुई मैत्री भी स्वीकार है ! वह शत्रुता में न बदले ! बस, इतना ही बहुत है ! मैत्री रहे चाहे छूटे वह अपवित्र न बने यह जरूरी है, बस हम इसका ख्याल रखें ! बुझी हुई अगरबत्ती की राख भी सुगंध देती है। Oh My friend ! मैत्री का उपवन आओ हम सृजित करें जहाँ प्रेम, आत्मीयता और शांति की खुशबू फैले ! जहाँ विरह की (विप्रयोग की) वेदना नहीं, वहाँ पुनर्मिलन का माधुर्य भी कहाँ से ? जहाँ प्रतिक्षा की उर्ध्व्मूल संवेदना नहीं है वहाँ मिलन योग की परितृप्ति कहाँ से होगी ? Love is the pursult of the whole. प्रेम – अखिल की आराधना है! सहज मिलनेवाला जीवन समुद्र का किनारा है ! दो हृदयों के बीच पनपती सहज मैत्री, सहज प्रेम विलक्षण आध्यात्मिक अनुभूति है ! ईर्ष्याी, बैर, घृणा, द्वेष, मनमुटाव, चालबाजी, धोखा, स्वार्थधरता के इस युग में – इस माहौल में आओ चलो अपन पहल करते हैं… कृत्रिमता रहित मैत्री की… अनहद अद्वैत प्रेम की…
Best of luck !!