इस दुनिया में हम नहीं चाहते हों ऐसा, न अच्छा लगता हो ऐसा, और कभी सोचा भी न हो ऐसा हो जाता है। हकीकत ये है कि ये सिलसिला अनादिकाल से चल रहा है और चलता ही रहेगा । इस कटु सत्य को स्वीकार करते हुए, बैचेन, अशांत और तनावग्रस्त रहने की अपेक्षा ईश्वर की मर्जी में अपनी मर्जी मिलाने की आदत डालना सीखो । संसार को स्वप्न जैसा समझना सीखो। दूसरों की गलतीयों की उपेक्षा करना भी सीखो ।
आखिर, हम अनावश्यक दूसरों की बातों को व अप्रीतिकर घटनाओं को कबतक याद रखेंगे ? जो अवश्यम्भावी है, उसके लिए दूसरों को दोष देकर या परिस्थितियों को जिम्मेदार बताकर आखिर कबतक अशांति की आग में जलते रहेंगे ?
चिंता – दुःख, तनाव, भय और बदला लेने की वृत्तियों रूपी गठरीयों को कबतक अपने सिर पर लादते रहेगें ? कितना अच्छा हो कि हम हमारे सभी विरोधीयों, निंदकों व सारे संसार को अभयदान, क्षमादान दें और सच्चे हृदय से कह दें – मिच्छामि दुक्कडम् ´ और एक नए जीवन की शुरूआत करें ।