नारायण साँई ‘ओहम्मो’ का आया है समग्र विश्व के नाम शुभ संदेश…
मजबूत, मोटी, कारावास की ऊँची दीवारों को भेदकर, अनगिनत सलाखों को चीरकर पहुँचा है आप तक संदेश, अब आप फैला दो इसे भारत के हर मानव तक, सात समुंदर पार तक, देश-विदेश में, कई भाषाओं में पहुँचा दो साँई का ये शुभ संदेश… जिससे मिलेगी जिन्दगी को प्रसन्नता से बीताने की राह !
मेरे प्रिय पाठकों ! श्रोताओं ! मेरे प्रिय मित्रों, स्नेही-स्वजनों ! हर आयु-वर्ग-जाति-धर्म-संप्रदाय के मेरे समर्थकों ! देश-विदेश में बसे मेरे आत्मीयजनों ! आप सभी को, कि जो मुझे जानते हैं या नहीं जानते, मेरे से मिले हो या दूर से किसी तरह पहचानते हो, मैं अपने हृदय की बातें, आपसे साझा करता हूँ और मेरे विचारों को आप तक पहुँचाने में मोटी-ऊँची मजबूत जेल की दीवारें और ये अनगिनत सलाखें मुझे रोक नहीं पाई है । इस खुशी के साथ इस पत्र की शुरुआत करते हुए मैं सुखद अहसास कर रहा हूँ ।
मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मेरा यह पत्र कोई अनजान व्यक्ति पड़ेगा तो क्या सोचेगा ! मैं नहीं जानता कि यह पत्र न जाने कितने ही अपरिचित लोगों तक पहुँच रहा होगा कि जिन्होंने पिछले 40 वर्षों में मुझे कभी आमने-सामने देखा तक न होगा । तो ऐसे लोगों तक भी पहुँचेगा कि जिनसे मेरी मात्र नजरें मिली है । तो ऐसे लोगों तक भी पहुँचा है कि जो मेरे करीबी थे । आज भी मेरे नजदीक हैं । हो सकता है पढ़नेवालों को इस पत्र पढ़ने के साथ अलग-अलग अहसास होता होगा । कई लोग जो पढ़ नहीं सकते वे इस पत्र को सुनेंगे । पाँच-पच्चीस, सौ-दो सौ, पाँच सौ, हजार लोगों के बीच मेरे पत्र पढ़कर सुनाए जाते हैं ये मेरी जानकारी में है । सो यह पत्र कई पढ़ रहे हैं तो कई सुन भी रहे हैं । आगे भी न जाने, कितनी बार मेरा संदेश पढ़ा जायेगा, सुना जायेगा – उसकी गिनती करना न मेरे बश में है न आपके । विचारों के बीज न जाने कब, कैसे विचारक्रांति कर दें और किसी का जीवन बदल दें, कहना मुश्किल ही नहीं, असंभव-सा है ।
अब, मेरे पत्र की मैं खुद ही इतनी प्रशंसा कर रहा हूँ तो बहुत हुआ, परन्तु स्नेहयुक्त, अपनत्व के ताने-बाने में औपचारिकताएं और प्रखर बुद्धिमत्ता की पकड़ ढ़ीली हुए बिना नहीं रहती । मैं हृदय को महत्व देता हूँ और बुद्धि को हृदय से पीछे ही रहना चाहिए ।
जैसा कि मैं खुद से अक्सर पूछता हूँ कि मैं क्या हूँ ? मैं चाहता हूँ कि आप भी स्वयं से सवाल करते रहें कि मैं कौन हूँ ? मैं क्या हूँ ? यकीन मानिये, स्वयं को पहचानने का द्वार स्वयं से ही खुलेगा । आखिर कब तक हम सभी दूसरे की बताई, समझाई, थोपी हुई पहचान से जीते रहेंगे ! स्वयं के भीतरी द्वार को खोलकर स्वयं का परिचय प्राप्त करना होगा । हमारी पहचान हमें करनी होगी । अपनी पहचान पाए बिना ही जिन्दगी खत्म हो जाती है कईयों की ! अब, हम जानें खुद को । पहचानें स्वयं को । आओ, खुद को खोजने के लिए खुद के भीतर के ही द्वार खटखटाएं ! जानना होगा हमें कि हमारी हकीकत क्या है ! कई बार मानव बड़े पद-सम्मान के साथ स्वयं को इतना बड़ा समझने लगता है कि खुद की वास्तविकताओं से ही दूर हो जाता है । जिन्दगी के थियेटर में जिस नाटक का मंचन मानव करता है, उसकी आत्मा को पहचानने में थाप खा जाता है । खुद से सवाल कीजिए कि क्या ऐसी थाप कहीं हम खा तो नहीं रहें ? एक किरदार के रूप में काम करते-करते किरदार से ही इतने आबद्ध हो जाते हैं कि उससे अलग नहीं हो पाते ! ऐसी ही हालत के कारण हम खुद को पहचानने में विफल हो जाया करते हैं ।
देखिये दोस्तों ! बहुत ही सच्ची सटीक बात यह है कि अंदर ही अंदर हम लोग जाति, धर्म, वर्ग, दल, क्षेत्र, संस्कृति, भाषा और देशों में बँट रहे है, बँटे हुए है और इतना ही नहीं हम धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा और अलग-अलग तरह की जानकारियों के अहंकार को भी सिर पर लादे हुए है । बहुत ही जाहिर है कि इस तरह हम स्वयं को जानने में चूक जा रहे हैं, बाहर और अंदर हर ओर से हम खुद को पहचानने में थाप खा रहे है और स्व की तलाश किये बिना अपने वास्तविक अस्तित्व से बेखबर हो मानों जिन्दगी घसीट रहे हैं ! बोलो, क्या कहते हो ? सच है कि नहीं ?
अब एक और सच्चाई भी कह देता हूँ कि अक्सर हमारा हाल कैसा है जानते हो – कि सब कुछ जानकर भी कुछ न जानना और कुछ न जानकर भी सब जानने का दावा करना – ये और कुछ नहीं, आत्महीनता और आत्मदीनता के कुचक्र में फँस जाना है । आप एक पल तो सोचें कि जीवन क्या है ? सिर्फ अच्छा खाना, अच्छा पहनना, अच्छे मकान में रहना और सुख-सुविधाओं का गुलाम बनकर जिन्दगी गुजार देना ? क्या यही जीवन है ? क्या यही जिन्दगी की श्रेष्ठता है ? क्या यही जिन्दगी की सफलता है ? नहीं… नहीं… हरगिज नहीं ।
मेरे प्यारे पाठकों ! जीवन जीना तो एक कला है । जीवन एक उत्सव है । Festival of Life, Celebrate always उसे हमेशा मनाएँ… मनाना सीखें ! सीखें जीवन जीने की, जीवन को उत्सव रूप में मनाने की कला को ! दूसरों के जीवन जीने का ढंग देखकर उनके जैसी जिन्दगी अपनाकर जिन्दगी तो काटी जा सकती है, घसीटी जा सकती है, जिन्दगी की नकल की जा सकती है परन्तु जिन्दगी सजाई नहीं जा सकती, मनाई नहीं जा सकती । मित्रों ! जीवन को सजाने के लिए मूल्य, सुकृत्य और सद्-व्यवहार के गुणनफल हल करने पड़ते हैं । जिसने हल कर लिए वह सांसारिक कसौटियों पर हार कर जीत गया और जो हल नहीं कर पाया, वह सब कुछ भौतिक हांसिल करने के बावजूद भी हार गया, फेल हो गया । बाहरी चमक-दमक, सुख-सुविधा और अहंकार में डूबा हुआ मनुष्य जीवन संघर्ष में टिक नहीं पाता । जब तक बोध नहीं, बातें ही बातें रहती है और जब जीवन के व्यर्थ होने का अहसास होता है फिर पछतावे को भी कुछ नहीं बचता । अंदर की कलात्मकता और भावात्मकता जीवंत रहती है तो अंतर्मन जीवित रहता है । ऐसा न होने पर प्लास्टिक मन और सूखा नीरस जीवन ही शेष रहता है । अंदर से खोखला होने के बाद बाहर के रंग-रोगन से दूसरों को तो भ्रमित किया जा सकता है, लेकिन खुद को स्वयं से छिपा पाना असंभव ही होता है ।
आपने पढ़ा होगा, सुना होगा । कई बाहर से धनाढ्य, सुखी-संपन्न लोग भी आत्महत्या करते हैं । क्यों ? क्योंकि वे न जीवन को समझ पाये, न स्वयं को । स्वयं से बेखबर, जिन्दगी से नासमझ लोग जिन्दगी नष्ट करने पर उतारू हो जाते हैं ।
सच के आनंद और झूठ के सुख की तुलना करके देखिये । एक जीवन बिंब के साथ सत्य, आनंद की अनुभूति ही बताती है कि हम कितने पूर्ण हैं ! जब पूर्णता का बोध होने लगे तो समझना कि अब हम दूसरों को आधार, दूसरों को सहारा दे सकते हैं । इससे उलट, झूठ के काल्पनिक सुख में ही स्वयं को डुबो दिया तो तय है कि स्व के नष्ट होने की घड़ी आ गई । ‘स्व’ को खोजने के लिए जरूरी है कि खुद पर खुलकर हँसने की हिम्मत पैदा कर ली जाए । ऐसा होने पर झूठ का झूठ बालू की भीत की तरह एक दिन ढह जायेगा !
और एक खास बात बताऊँ कि जिन आँखों पर हम भरोसा करते हैं वे आँखें स्वयं को कभी नहीं देख पातीं और फिर जो स्वयं को न देख पाएँ, वे दूसरों को कैसे वास्तविक रूप में देख सकती हैं !
यही हाल मन की आँखों का है । मन की आँखों को पहले तो हम खोल ही नहीं पाते और यदि खोल भी लेते हैं तो धारणाओं, मान्यताओं, आग्रहों और दुराग्रहों से इतने अधिक जकड़े रहते हैं कि अपनी वास्तविकताओं को देख नहीं पाते !
मैं चाहता हूँ आप जीवन का वास्तविक दर्शन करें । जिन्दगी को समझें । जीवन को उत्सव की नाईं मनाएँ । मन के विज्ञान का जीवन के विज्ञान से संतुलन बिठाने की कोशिश करें । स्वयं से स्वयं की बनी दूरियाँ खत्म हो जाए… आप जागें, आप उठे और चल पड़ें… सारी बाधाओं को चीरकर आइये, हम जीवनोत्सव मनाएँ । धर्म-मत-पंथ-सम्प्रदाय, जाति-वर्ण-रंग-भेद की दीवारों से बाहर आएँ… नाचें, हम । गाएं… हम । उत्सव मनाएँ हम । गरीब-अमीर का भेद भूलकर… आओ, उत्सव मनाएँ हम ।
मैं गाऊँ… तुम भी गाओ ।
मैं नाचूँ… तुम भी नाचो ।
मैं हो जाऊँ तल्लीन… तुम्हारे साथ ।
कहिये, हो आप तैयार ? सारी संकीर्णता छोड़कर ! स्वयं को जगाने के लिए ? अगर हाँ… तो फिर कीजिए संकल्प, स्वयं को जागृत करने का ! चलिए, परमानंद प्राप्ति का प्रयास करिये !
जो स्वयं में कभी देखा नहीं, उसे देखने के लिए मन की आँखों को खोलकर देखिये । आपका जीवन विज्ञान एक खोजकर्ता के रूप में मार्गदर्शन करता मिलेगा । आपकी अंतरात्मा में कभी मेरी ध्वनि भी आप सुन सकेंगे ! आपके भीतर ही सूर पैदा हो सकते हैं । आप गुनगुनाने लगेंगे । चहकने लगेंगे, मुस्कुराहट से चमकने लगेंगे ।
फूल खिला, फूल महका और फूल कुछ दिन में मुरझाकर अपने स्व में विलीन हो गया, लेकिन उसका खिलना, महकना और बिखर जाना, उसकी वास्तविकता का ही रूप था । उसके खिलने, महकने और बिखरने में कहीं भी अवास्तविकता नहीं थी । सब कुछ सहज हुआ । यही सहजता स्वयं को स्वयं से जोड़ने के लिए अपेक्षित है ।
वास्तविकता को आप सहजता के साथ स्वीकार करते जाइये, जिन्दगी को बोझ नहीं, मौज मानिये । जिन्दगी सहज, सरल, सच और आनंदधाम बनती जाए आपकी ! हम सब विभिन्न जाति के, विभिन्न धर्मों-संप्रदायों के क्यों न हो, हमारे बीच भाषा की दिक्कत क्यों न हो, हम लोग चाहे विश्व के अलग-अलग देशों में रहनेवाले क्यों न हों… फिर भी हम सभी में कुछ चीजें समान है…
अगर स्वयं को खोजने, जानने का प्रयास करने में हम सफल हो जायेंगे, तो हमारी आपस की दूरियाँ भी घटेंगी, मिटेंगी । दुनिया की लड़ाई खत्म होगी । आपसी मन-मुटाव कम होगा । हम एक सुंदर, बेहतर, आनंदमय दुनिया बनाने में कामयाब होंगे…
हमेशा जीवन को उत्सव की नाईं मनाएँ… सजाएँ… खुद की पहचान करके जिन्दगी बेहतर बनाएँ…
ना अगर, ना मगर…
जाने खुद का असली घर…
जहाँ से सत्य-प्रेम-करुणा का होता विस्तार, ओजस्वी अध्यात्म की वेदान्तिक जीवनशैली का महत्वपूर्ण सिद्धांत स्वयं की पहचान है, आत्मबोध है, खुद की खबर है ! इस बारे में आप अधिक जानना चाहें तो “ओजस्वी अध्यात्म” पुस्तक पढ़ें – जिसे डाउनलोड कीजिए – इंटरनेट पर सर्च करें – www.ohmmo.org/e-book/ojaswiAdhyatma
इस पत्र के अंत में, एक पंच प्राण कविता लिखता हूँ जो सत्यम सम्राट आचार्य की है… पेश है…
जब मुझे पता चला
कि तुम पानी हो
तो मैं भीग गया
सिर से पाँव तक ।
जब मुझे पता चला
कि तुम हवा की
सुगंध हो तो मैंने
एक श्वास में समेट लिया
तुम्हें अपने भीतर ।
जब मुझे पता चला
कि तुम मिट्टी हो
तो मैं जड़ें बनकर
समा गया तुम्हारी
आर्द्र गहराईयों में ।
जब मुझे मालूम हुआ
कि तुम आकाश हो
तो मैं फैल गया
शून्य बनकर ।
अब मुझे बताया जा रहा है
कि तुम आग भी हो…
तो मैंने खुद को
बचाकर रख लिया है
तुम्हारे लिए ।
मेरे प्यारे पाठकों ! मित्रों ! साधक भाईयों-बहनों ! समर्थकों !
जिन्दगी को उत्सव रूप में मनाना विरले ही सीख पाते हैं ।
अक्सर खुद को पहचाने बिना ही लोग इस दुनिया को छोड़ जाते हैं ।।
कुछ लोग रहते भर हैं दुनिया में,
पर समझदार लोग ही जिन्दगी के मर्म को समझ पाते हैं ।
चलिए, स्वयं को जानने की शुरुआत करिए… और हमारे मिलने की उम्मीद रखिए… मेरा पत्र अच्छा लगा और आप जवाब देना चाहते हैं तो पत्र मुझे भेजिये इस पते पर :-
नारायण साँई, लाजपोर जेल, सचिन, सूरत, गुजरात ।