अभावों के बीच ही आनंद का स्रोत है…
हर दिन सूरज एक-सा उगता है… दिन भी वैसे ही आगे बढ़ता है ।
कुदरत का नियम नहीं बदलता, लेकिन इसी नियम में जीवन का मौलिक आनंद भी छिपा है । असल बात है, अभावों के बीच आनंद के स्रोत तक पहुँचना…
केरल में मूल निवासियों का एक समूह है – ‘मुतुवान’ ! वे कुछ गाँवों में फैले हुए हैं । केरल जैसे राज्य के लिए यह एक अप्रत्याशित बात हो सकती है कि उन गाँवों तक सड़क नहीं है, बिजली नहीं है और जाने-आने के सर्वसुलभ साधन भी नहीं हैं । नदी के इस पार ही मुख्य सड़क खत्म हो जाती है । उस पार जाने के लिए नाव है । फिर पाहाड़ियों के बीच बनी पगडंडियों पर चलते जाइए झरने-नाले पार करते जाइए, तब कहीं पहुँचते हैं घनघोर हरियाली के बीच बसे मुतुवान लोगों की बस्ती में । एक बार को यह सब बहुत अलग लगता है कि लोग वहाँ क्यों रहते हैं, जहाँ भोजन जुटाने के लिए बड़ा संघर्ष हररोज करना पड़े । पहाड़ों को पारकर नदी से मछली पकड़ना, जंगल में जाकर कई तरह के जंगली जानवरों के खतरे के बीच शहद इकट्ठा करना और सबसे बढ़कर यह बात कि कुछ न मिले, तो जो भी घास-फूस सामने दिख जाए, उसे ही खाने के लिए भून-पका लेना । कहने की जरूरत नहीं है कि यह सब असहज कर देनेवाला होता है, लेकिन मुतुवान असहज नहीं होते । सोने से पहले वे जोंक-भरे रास्ते पारकर एक जगह जमा होते हैं और जमकर नाचते-गाते-झूमते हैं । जब थककर चूर हो जाते हैं, तो खुशी भरे चेहरे के साथ सोने जाते हैं । लौटते वक्त नींद-थकान और सुख के असर में वे जोरदार कहकहों से लैस होते हैं । सपनों तक कहकहे उनके साथ रहते हैं । उनका यह हर दिन का आनंद उत्सव है ।
तुतलाती बोली का स्वाद…
रोजमर्रा की जद्दोजहद के बीच गुजरते आम दिन में नींद तक पहुँचना कई सारे संधर्षों से होकर चलने जैसा है । जीवन सबका संघर्षमय है । हाँ, एक फर्क है, जो जीवन को विराट ऊँचाई देता है । वह है, जीवन के उत्सव को मनाना और अभावों के बीच सकारात्मकता तलाश लेना । विकल्प सभी के पास हैं – बच्चे की तुतलाती बोली है, साथी का साथ है । बच्चों की बोली कितनी सुखकारी है, संत कवि तिरुवल्लूवर के शब्दों में जानिए – ‘वंशी मधुर है, वीणा मधुर है – ऐसा वे ही कहते हैं, जिन्होंने बच्चे की तुतलाती बोली का स्वाद नहीं चखा ।’ कवि का मतलब साफ है ! आसपास ही हैं खुश करनेवाली चीजें । जरुरत है केवल उन्हें व्यवहार में उतारने की अक्ल हम पैदा कर लें । जांनिसार अख्तर कहते हैं- इतने मायूस तो हालात नहीं / लोग किस वास्ते घबराए हैं !
खुद को फिर भरने को तैयार खेत
फसल कट जाने के बाद खेत किस तरह बियाबान हो जाते हैं । थोड़े दिनों में हमारी आदत पड़ जाती है, खाली खेतों को देखने की, लेकिन यकीन मानिए – खेत का सच हमसे अलग है । वो जब खाली रहता है तो भीतर ही भीतर खुद को भर जाने के लिए तैयार करता रहता है । थोड़े ही दिनों में खेत फिर लहलहा उठते हैं । उनसे हरी गंध उठने लगती है । एक समय का खाली परिवेश नए रूप में फिर से सामने आ जाता है । खेत में छूट गए अन्न चिरई-चुनमुन के पेट भरते हैं । जीवन इतना ही समृद्ध होता है । बात यहाँ आकर ठहरती है कि उस समृद्धि का उपयोग हो पाता है या नहीं । फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी है – ‘लालपान की बेगम’ । उसकी पृष्ठभूमि में जो जीवन है, वह अभावों का सागर है, जहाँ किसी अच्छी बात का हो पाना बहुत-सी अन्य बातों पर निर्भर करता है । उन सब उतार-चढ़ावों के बीच जब नाच देखने के लिए चाँदनी रात में गाँव से बैलगाड़ी निकलती है तो पूरा परिवेश संतोष की मुस्कान से खिल उठता है । आनंद अंतिम स्थिति में न होकर हर क्षण में है ।
गर्वीली गरीबी के अंगूरों का गुच्छा
रह-रहकर कर्नाटक के बागलकोट जिले की वो स्त्री याद आती है । गर्मियों के दिन थे और लग रहा था कि सड़क पर दौड़ती बस आग का गोला बन गई है । एक स्त्री ने पानी माँग लिया । फिर तो पानी की वो बोतल बस में तब तक सफर करती रही, जब तक उसमें आखरी बूँद बची थी । जिन्होंने भी पानी पी लिया, उनके चेहरे का संतोष देखने लायक था । उसी संतोष के वशीभूत दूसरी बोतल भी बढ़ा दी गई । बस जब एक जगह पर पहुँची तो अधिकांश लोग उतर गए । उतरनेवाले लोगों में से एक स्त्री अंगूर का गुच्छा साथ लाई थी और बस में छोड़कर चली गई । उसे यह एहसास था कि पिलाए गए पानी के बदले अंगूर स्वीकार नहीं किए जाएँगे, इसलिए खिड़की के पास आकर अपनी कन्नड़ मिश्रित हिंदी में उसने बस इतना कहा – ‘इसे खाते हुए जाना । हमारे बागलकोट जिले का है लोकल ।’ बस चल रही थी और सारे दृश्य पीछे छूट रहे थे, लेकिन गोद में रखा अंगूरों का गुच्छा मन को सरस हरियाली से भिगोए बैठा था । ‘गर्वीली गरीबी’ का ये आनंद लंबे समय तक रहनेवाला था ।
कुदरत की तरह ही जीवन भी सहज है
यह तय है कि सुबह का सूरज थककर अपने ठिकाने को जाएगा । लौटेंगे वे पक्षी भी, जो भोजन की तलाश में गए हैं । शाम दिन का अंत है और रात की शुरुआत । शाम की कल्पना कवि ‘संध्या-सुंदरी’ के रूप में करता है, तो रात निराली शांति लाती है । अगले दिन के लिए तरोताजा कर देती है । क्यों न, जीवन को इसी तरह देखें ! प्रकृति जिस सरलता से सब कुछ संतुलित करती है, वही जीवन में अपेक्षित है । हम भी तो उसी कुदरत का हिस्सा हैं न !
(लेखक-आलोक रंजन, कवी और कहानीकार, भारतीय ज्ञानपीठ का ‘नवलेखन पुरस्कार-२०१७ से सम्मानित)