साँईं की कलम से…महाशिवरात्रि विशेष 

अक्का महादेवी की पुण्यमय कथा !

अक्का महादेवी को भगवान शंकर की मानस पत्नी तथा दक्षिण भारत की दूसरी पार्वती कहा जाता है । अक्का महादेवी कर्नाटक राज्य के उड़ूतड़ी गाँव में निवास करनेवाली एक उच्च कोटि की महिला संत थीं, जिनका जन्म सन्-1130 के आसपास माना जाता है । उन्होंने भगवान शिव के साकार तथा निराकार स्वरुप का दर्शन किया था । उनके पिता का नाम -‘निर्मलछेटी’ तथा माता का नाम – ‘सुमति’ था, वे दोनों ही शिव के भक्त थे ।

एक दिन वो घर के आंगन में मस्ती से प्रभु के गीत गा रही थी जिसका अर्थ था – ‘मैं तो उस सुंदर के प्रेम में पड़ी हूँ । ओ मेरी माँ ! कैसा है मेरा प्रियतम बता ? सुन ले, मेरे प्रियतम का नहीं है कोई देश, ना घर ! वह है एक अखंड अविनाशी… मेरा प्रियतम है भगवान ! वह मेरा है, मैं उसकी हूँ । मैंने उसका वरण कर लिया है । वह अमर है, दूसरे मरनेवाले नाशवान पतियों को डाल चूल्हें में (भाड़ में) ! मेरा तो पति ईश्वर है, मैं उसकी हूँ, उसका पूरा नाम भी सुन ले-‘भगवान चेन्नमल्लिकार्जुन’ (भगवान शिव का एक नाम, 12 ज्योतीर्लिंगों में से एक, जो हैद्राबाद के पास श्री शैलम् पर्वत पर बसे हैं) !

लगभग साढ़े आठ सौ साल पहले की बात है तब भारत में रजवाड़े हुआ करते थे और एक गाँव या कुछ गाँवो का एक राजा हुआ करता था । इस उड़ूतड़ी गाँव का राजा कौशिक था जो एक दिन हाथी पर बैठकर गाँव में घुमने निकला था । उसकी सवारी घूमते-घूमते भगवत्भक्त लड़की के घर के आगे से निकली । राजा की नजरें उस पर पड़ी । लड़की बहुत सुन्दर थी । बाहरी सौंदर्य के साथ-साथ उसके चेहरे पर असली सौंदर्य भी झलक रहा था । राजा कौशिक उस लड़कीको देखकर मुग्ध हो गए । लड़की का नाम था ‘महादेवी’ ।

महादेवी के माता-पिता वीर शैव धर्म का पालन करते थे । कल्याण में रहकर संत बसवेश्वर इसी वीर शैव धर्म का प्रचार करते थे । इसका प्रभाव कर्नाटक में बढ़ता जा रहा था । राजा कौशिक ने महादेवी के माँ-बाप के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा और कहा कि ‘इसका स्थान तो राजमहल में है । ऐसी रूपवान लड़की तो मेरे राजमहल की शोभा बढ़ाएगी, इसलिए लड़की का मेरे साथ विवाह करा दो ।’ राजा कौशिक वीर शैव धर्मी नहीं था, ‘भवी’ था । जो वीर शैव धर्मी न हो तो उसे ‘भवी’ कहा जाता था । लड़की के माँ-बाप असमंजस में पड़ गए । महादेवी को तो शादी की इच्छा ही नहीं थी । उसने तो मन ही मन ‘भगवान चेन्नमल्लिकार्जुन’ से विवाह कर लिया था । दृढ़ मनोबलबाली और परमात्मा को ही पति के रूप में स्वीकार करनेवाली महादेवी ने राजा कौशिक के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया ।

राजा कौशिक क्रोधित हुआ । उसने अपने आपको अपमानित महसूस किया । उसने आदेश दिया कि ‘जाओ अगर वह लड़की अपनी खुशी से नहीं आती है तो उसे जबरदस्ती ले आओ और उसके माँ-बाप का कत्ल कर दो ।’ राजा का यह हुकुम सैनिकों ने लड़की के माँ-बाप को सुना दिया । क्रूर राजा का ऐसा कठोर आदेश सुनकर दम्पति का हृदय काँप उठा । वे डर के मारे ढीले पड़ गए । (सुमति और निर्मल) बेटी को समझाने लगे-‘बिटिया, अब तू हठ छोड़ दे । हम गरीब, असहाय, दुर्बल लोग कर ही क्या सकते हैं ? वैसे भी हमारे वीर शैव समाज की कई लड़कियाँ भवी के साथ शादी कर ही रहीं हैं । हमें लगता है तुझे अपना आग्रह छोड़ देना चाहिए । अगर हमें जिंदा देखना चाहती है तो न चाहते हुए भी तुझे राजा से विवाह करना ही पड़ेगा और कोई उपाय भी तो नहीं है ।’

माँ-बाप की यह बात सुनकर महादेवी असमंजस में पड़ गई । काफी देर सोचने के बाद महादेवी ने कहा -‘ठीक है, मैं विवाह कर लेती हूँ । लेकिन मेरी तीन शर्तें होंगी जो मैं राजा को ही बताऊँगी ।’ सैनिकों ने तुरंत जाकर राजा को ये समाचार दिया । राजा महादेवी के घर पहुँचा ।

महादेवी ने राजा से कहा-‘राजन्, मेरी तीन शर्तें हैं जो आपको माननी होंगी तभी मैं आपसे विवाह करूँगी । वे शर्तें सुन लो-1) भगवान शंकरजी की पूजा आराधना में आप कभी मुझे रोक-टोक नहीं करोगे । 2) भक्तों के समक्ष भगवान की महिमा का प्रचार-प्रसार करूँ तो उसमें कभी प्रतिबन्ध नहीं लगाओगे । 3) मेरे सद्गुरु की सेवा व आज्ञापालन में मुझे सदा सहयोग करोगे । अगर इन शर्तों का भंग होगा तो रानी का पद, सारे भोग-विलास, राजमहल, ऐश्वर्य, ऐशो-आराम की तमाम सुख-सुविधाएँ यहाँ तक की आपका भी मैं त्याग कर दूँगी । क्या आपको मेरी ये तीनों शर्तें मंजूर हैं ?’ लड़की के माता-पिता उसकी शर्तों को और गुरुभक्ति को देखकर मन ही मन खुश हो रहे थे, लेकिन भयभीत भी थे । आशंकित नजरों से राजा को देख रहे थे ।

राजा कौशिक ने सभी लोगों के सामने महादेवी की तीनों शर्तों को स्वीकार कर लिया । स्त्री-हठ के सामने कई बड़े-बड़े भी झुक गये हैं । विवाह की तैयारियाँ शुरु हो गई, धूम-धाम से महादेवी का राजा कौशिक के साथ विवाह महोत्सव संपन्न हुआ । रूपसुंदरी महादेवी राजा की महारानी महादेवी के रूप में राजमहल में सुशोभित हो रही है । उसका रूप अन्य स्त्रियों के रूप को फीका कर रहा है ।

महादेवी की विशेषता तो इस बात में है कि उसने बाहरी सौंदर्य के साथ असली सौंदर्य भी धारण कर रखा है जो बाहरी रूप से कई गुना अधिक महत्त्व रखता है । राजमहल में चारों ओर भोग-विलास का सामान है । अच्छे से अच्छे गहनें, कपड़े, साज-सज्जा की तमाम सामग्रियाँ जैसे कि रेशमी चादरें मुलायम गद्दे, कालीन, गालिचे आदि कहाँ तक वर्णन करें । राजमहल को सुशोभित करनेवाले कीमती से कीमती सामान मौजूद हैं । परंतु असली खजाने को जान चुकी महादेवी के मन में इन बाहरी ऐशो-आराम, कीमती वस्त्र, अलंकार का कोई विशेष महत्त्व ही नहीं हैं । जिसे भक्तिरस मिला हो उसे सांसारिक रस तुच्छ लगता है ।

महादेवी राजमहल में रहने लगी परंतु उसके मन में द्वंद्व शुरु होने लगा । वह सोचने लगी जिसने जंगल में घर बसा लिया हो वो जंगली जानवर से ही डरने लगे तो क्या होगा ? उसे तो उन जानवरों से कभी भी मुकाबला करना पड़ सकता है ।

महादेवी को पल-पल एहसास होता है कि वह ऐशो-आराम, भोग-विलास, विषय-विकार रूपी हिंसक जानवरों के राजमहल रूपी जंगल में पहुँच चुकी है । पर शहर के बीच जिसका घर हो उसे शोरगुल तो सहन करना ही पड़ेगा । समुद्र तट पर घर हो और लहरों से डरता रहे तो कैसे चलेगा ? उसे ज्वार-भाटा भी तो देखना होगा । वह समुद्री हवाओं से कैसे बच सकता है ? नामुनकिन है ! ठीक वैसे ही जहाँ जीवन है, वहाँ रहने-खाने व जीवन संबंधी समस्याओं से मुकाबला करने की परिस्थिति आती है ।

खून पसीना बहाता जा, तान के चादर सोता जा ।

यह नाव तो हिलती जाएगी, तू हँसता जा या रोता जा ।

पर भक्ति की शक्ति अनोखी होती है । राजमहल का राजसी वातावरण महादेवी की सात्त्विक भक्ति को रोक नहीं पाया । उसका प्रतिदिन का नियम यहाँ शुरु हो गया । हर रोज सुबह नित्य-कर्म के बाद भगवान शंकर की पूजा-अर्चना करना, श्रद्धा-भक्ति से शिवमंत्र का जप करना और भगवद्भक्ति के भजन गुनगुनाना… । महादेवी के एक भजन का सार इस प्रकार है :-

‘हे नाथ, हे दयालु, हे जीवन धन, तू मेरी आवाज सुने कि न सुने लेकिन मैं तो सुनाऊँगी निशदिन… । मैं तेरी हूँ, मैं तेरी हूँ, तुम मेरे हो । मेरी भक्ति, उपासना, वंदना, श्रद्धा तुझ तक पहुँचती है कि नहीं वह तू जाने, तू सुनता है कि नहीं, मुझे उससे कोई मतलब नहीं । मेरा तो काम है सुनाना । मुझे यह विश्वास है कि, ‘हे प्रभु, तुम मेरा अहित कभी नहीं कर सकते । मैं तो चलूँगी तेरी ओर ही देखूँगी… । हे मेरे चेन्नमल्लिकार्जुन, तुम तो मेरे दिल में बसे हो । तेरे गीत गाने में, तेरी भक्ति में, तेरे स्मरण-चिंतन में मुझे क्या आनंद मिलता है वह तो मैं ही जानती हूँ नाथ !’

महादेवी के ऐसे भक्तिपूर्ण विचारों से लोग आकर्षित हो रहे थे । उनके जीवन भी ईश्वर की ओर अग्रसर हो रहे थे । गुरु के ज्ञान का प्रभाव महादेवी के जीवन सहित औरों के जीवन को भी आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में ले जा रहा था… । महादेवी अपने महारानी पद का भी पूरा उपयोग करने लगी । भक्तों के सेवा सत्कार में धन लगाने लगी । वीर शैव सम्प्रदाय में भक्तों-उपासकों की तीन कक्षाएँ हैं :-

1) साधारण श्रेणी – जो शिव को माने वो शिव भक्त ।

2) साधक श्रेणी – जो अनन्यभाव से भक्ति करे व तत्परता से नियम आदि पाले वह साधक है ।

3) संत श्रेणी (महेश्वर) – जो संपूर्ण जीवन भक्ति में ईश्वर के प्रति समर्पित कर दे, वह शरण्य कहा जाता है ।

महादेवी ने ऐसे शरण्य भक्तों के लिए अन्नक्षेत्र (सदाव्रत) ही खोल दिया । अन्नदान महादान ! जो आए खाए, नित्य भगवान का प्रसाद पाए । हर रोज सत्संग समारोह शुरू हो गया । मिल-जुलकर सभी कीर्तन-भजन गाते, अपनी साधना भक्ति के अनुभव सुनाते । बाद में भोजन प्रसाद पाते । हर रोज सत्संग, हर रोज भंडारा । भक्तों की तो मौज ही मौज हो गई ! भगवद्भक्ति का प्रचार-प्रसार जोर-शोर से होने लगा । दूर-दूर तक ख्याति फैलने लगी । संतों व भक्तों की जमातें आने लगी ।

एक बार बहुत दूर से एक महेश्वर (संत) महादेवी से मिलने आए । महारानी होकर भी रोज साधु-संतों से मिलने, उनकी आगतम-स्वागतम करने से राजा तंग आ ही चूका था । अब राजा कौशिक का माथा ठनका । क्रोध के मारे उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया । ‘हर रोज न जाने कौन-कौन कहाँ-कहाँ से चला आ रहा है, पता ही नहीं चलता । परेशान हो गया इस भगतड़ी महादेवी को मिलानेवालोंसे ! महादेवी को कितनी बार समझाऊँ की तू महारानी है, कम से कम अपने पद और गरिमा को तो देख ।’

राजा होठों में ही बुदबुदा रहा था । फिर राजा ने दूर से मिलने आए महेश्वर (संत) से कड़े शब्दों में फटकारते हुए कहा ‘वह महारानी है । सबसे नहीं मिलती । उलटे पैर लौट जाओ जहाँ से आए हो वहाँ । परेशान मत करो । आए दिन तुम्हारी तरह कोई न कोई महादेवी से मिलने चला आता है, मैं परेशान हो गया हूँ ।’ राजा के मन का गुस्सा फूट निकला था ।

ऊँची आवाज में राजा को बोलता देखकर उत्सुकतावश महारानी महल के भीतर से बाहर आकर क्या देखती है कि राजा शिवभक्त को बुरी तरह से फटकार रहे हैं । शिवभक्त का अपमान देखकर महादेवी की आखों में आँसू छलक आए । महादेवी बोली ‘राजन्, वचन भंग हुआ है ।’ जिस पर क्रोध का आवेश आ जाता है उसे कहाँ कुछ पता चलता है । पर होश आते ही राजा का क्रोध शांत हुआ और उसे अपनी गलती का एहसास हुआ । वह महादेवी से माफी माँगने लगा, ‘देवी, मुझे माफ करो, माफ करो ।’ मानो मामला यही थम-सा गया । दिन बितते गए ।

फिर एक दिन की बात है । महादेवी ध्यानस्थ बैठी थी । ध्यान के क्षणों में मन की शांत अवस्था में महादेवी का सौंदर्य और जगमगा रहा था । आध्यात्मिक तेज की ज्योति उसके चेहरे पर छाई थी । ध्यानावस्थित महादेवी और अधिक आकर्षक, तेजोमय, कांतियुक्त, प्रसन्न, शांत और दिव्य मुखवाली लग रही थी । ध्यानस्थ महादेवी के इस अलौकिक सौंदर्य को देखकर राजा का कामविकार भड़क उठा । महारानी की आँखें राजा को संकोच में डाल रहीं थीं ।

एक तरफ काम विकार का आवेग राजा को शारीरिक सुख के लिए उत्तेजित कर रहा था, वहीं दूसरी तरफ महारानी महादेवी का सात्विक-सहज ध्यान उसे अपने स्वसमर्पित पति परमेश्वर के नित्य-मिलन का आनंद दे रहा था । रानी का सुख स्वतंत्र, स्वाधीन था जबकि राजा का सुख परतंत्र, पराधीन था । भोग और योग का यह फर्क स्पष्ट देखा जा रहा था । कामांध राजा ने महादेवी को अपनी बाहों में भरने का प्रयत्न किया ।

महारानी के रूप में उस महातपस्विनी का ध्यान भंग हुआ । कामविकार में बहने का तो प्रश्न ही नहीं था । योग भोग पर भारी पड़ा । महादेवी ने कहा-‘राजन, मैं तो नित्य मिलन के, नित्य नूतन रस का आनंद ले रही थी । उस महापूजा में तुमने विक्षेप डाल दिया । आज तुमने मेरा दूसरा वचन तोड़ दिया ।’ राजा फिर शर्मिंदा हुआ । वह महादेवी की सात्विकता, साधना, तेजोमय मुख के आगे कुछ भी बोलने की हिम्मत खो चुका था । फिर भी लड़खड़ाती जीभ से मुश्किल से इतना ही कह पाया-‘रानी माफ करो, माफ करो । इस बार जाने दो, मुझसे भूल हो गई ।’ महादेवी की सहज मुखमुद्रा मानो क्षमा दान दे ही रही थी ।

पर राजा कहाँ सुधरनेवाला था ! इस घटना के ठीक दूसरे दिन महादेवी के गुरुदेव पधारे । महादेवी राजा के समक्ष बैठी थी । अचानक पूज्य गुरुदेव को देखकर सहज भाव से महारानी सहसा खड़ी हो गई । वह गुरुदेव का सम्मान करने के लिए बढ़ ही रही थी । इतने में फिर तीसरा वचन भंग हुआ । राजा से अधिक रानी किसी को महत्त्व दे, यह राजा को पसंद ही नहीं था । राजा ने गुरुदेव का सम्मान कर रही रानी का वस्त्र पकड़ लिया । काम अंधा होता है । काम के आवेश में अपना होश खो चुके राजा को यह बुद्धि भी नहीं आई कि मुझे भी गुरु का सम्मान करने के लिए खड़ा होना चाहिए एवं प्रणाम करना चाहिए । इतना ही नहीं, व्यंग करते हुए महादेवी से कहा ‘जाओ-जाओ गुरुजी आए हैं, कपड़ों का क्या काम है ?’

महादेवी ने पलट वार करते हुए जवाब दिया ‘राजन, वैसे भी तुम मेरे तीनों वचन तोड़ चुके हो ! अपने राजमहल, ऐशो-आराम की सामग्रियाँ, वेश-भूषा, कीमती कपड़े और गहने देकर तुम मुझे अपना गुलाम बनाना चाहते हो ? ये हरगिज संभव नहीं हो सकता । रखो यह सब अपने पास ! मुझे कुछ भी नहीं चाहिए । मुझे जो मेरे गुरुदेव ने दिया है, उसे दुनिया की कोई ताकत छीन नहीं सकती । मैं मेरे गुरु की थी और रहूँगी । उनके बताए रास्ते पर मैं चल रही थी और आजीवन चलती रहूँगी ।

इस कल्याणकारी मार्ग को मैं किसी भी कीमत पर छोड़ नहीं सकती । आखिर हो-हो कर क्या होगा ? तुम्हारी धन-दौलत तुम्हें मुबारक ! मेरे शरीर पर वस्त्र हो या न हो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता । मैं शरीर नहीं, अजर-अमर आत्मा हूँ । मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता की मेरे बारे में कौन क्या सोचता है और बोलता है ! दुनिया की निंदा-स्तुति से मुझे कोई लेना-देना नहीं है । तुम्हें मेरे गहनें और कपड़ों से ही मतलब है तो ये तुम ही रखो । शरीर तो तब तक तुम्हारे हवाले था जब तक तुमने तीन वचनों को निभाया । तुमने उन तीन वचनों को तोड़ा, मेरा तुम्हारे साथ रहना पूरा हुआ ।

अब मेरे शरीर पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं, मेरे जीवन पर केवल मेरे गुरु का ही अधिकार चलेगा । जैसा वे कहेंगे वैसा मैं करुँगी । तुम खुशनसीब हो कि तुम्हें यहाँ बैठे-बैठे ही मेरे गुरुदेव के दर्शन हो रहें हैं । राजन्, मैं अपनी पूजा का शिवलिंग ले जा रही हूँ …।’ ऐसा कहते हुए महादेवी राजमहल को त्यागकर चलती बनी । राजा ‘ओ महादेवी, ओ महारानी, ओ सुंदरी, ओ मेरी प्रिय, तनिक तो सुनो…’ कहता ही रह गया, लेकिन महादेवी ने एक न सुनी ।’

शरणसती, लिंगपति, शरणसती, लिंगपति… गाते हुए महादेवी ने कर्नाटक का वह गाँव भी छोड़ दिया । उस राजा के राज्य की सीमा से आगे बढ़ते हुए कर्नाटक के कल्याण नामक स्थान में जो वीर शैव संप्रदाय का मुख्यालय था, वहाँ सन्त बसवेश्वर रहते थे, वहाँ पहुँच गई । रास्तें में अकेली एक नारी को जाते देखकर यह कौन युवती जा रही है, उसके नाम के बारे में पूछते तो वह यही कहती शरणसती, लिंगपति… मतलब जिसने भगवान की शरण ली ऐसी भक्त सती स्त्री है और भगवान शिव उसके पति हैं ।

संत बसवेश्वर और महायोगी अल्लामा के दर्शन करके महादेवी अपने को धन्य महसूस करने लगी । कई महापुरुषों ने महादेवी की हिम्मत, भक्ति में दृढ़ता, ज्ञान प्राप्ति में रूचि, विवेक, वैराग्य और त्याग को देखकर प्रशंसा की । संत बसवेश्वर ने कहा-‘महादेवी ! तुम श्री शैलम् जाओ, वहाँ भगवान श्री मल्लिकार्जुन ज्योतीर्लिंग के दर्शन करो । वहीं पर रहकर साधना और तपस्या करो ।’

गुरु की आज्ञा पाकर महादेवी श्री शैलम् के लिये निकली । तब संत बसवेश्वर और अन्य संतों ने कहा-‘यहाँ से श्री शैलम् का लंबा रास्ता तुम अकेली  ही कैसे तय करोगी ? हम तुम्हें श्री शैलम् छोड़ने आते हैं !’ तब महादेवी ने कहा-‘मेरा पति मेरे साथ हैं । मैं अकेली थोड़े हूँ । क्यों चिंता करते हो ?’ फिर भी कुछ दूरी तक छोड़ने के लिए वे साथ हो लिए । बाद में महादेवी ने आग्रह करके उन्हें वापस लौटा दिया और कहा-‘मैं शिव का और आपका नाम खराब नहीं होने दूँगी । अकेली हूँ तो क्या हुआ ? रास्ते में आनेवाली तमाम तकलीफों और जीवन में आनेवाली तमाम मुसीबतों का हँसते-खेलते मुकाबला कर लूँगी । आपकी कृपा मेरे साथ है, निश्चिंत रहें । गुरुदेव, आपके नाम और यश पर किसी भी प्रकार का कोई इल्जाम नहीं लगने दूँगी । अपने धर्म और आपकी महिमा को सदा आगे बढ़ाती रहूँगी ।’

फिर महादेवी अकेले ही श्री शैलम् पहुँच गयी । वहाँ अपने प्राणप्रिय इष्टदेव भगवान मल्लिकार्जुन महादेव के दर्शन करते ही उसे हृदय में विलक्षण शांति एवं शाश्वत सुख का अनुभव हुआ । जैसे गोपियाँ कृष्ण को सर्वस्व मानती थी, ऐसे ही महादेवी ने महादेव को ही पति मानकर उन्हीं के लिए जीना, उन्हीं की यादों में तड़पना, उन्हीं से मिलने की अनुभूति करना और उन्हीं के बारे में लोगों से बातें करना, इसीको अपना जीवनक्रम बना लिया । सभी लोग उन्हें ‘अक्का (बड़ी बहन) महादेवी’ के नाम से जानने लगे ।

अक्का महादेवी ने जो कुछ गाया, गुनगुनाया, जो कुछ वचन कहे या लिखे, वे कन्नड़ भाषा में पुस्तक रूप में प्रकाशित भी हुए हैं । उनके कन्नड़ भाषा में कहे गीतों, पदों, दोहों, साखियों या वचनों का अर्थ कुछ इस प्रकार है – ‘हे भूख ! मत मचल, प्यास तड़प मत, हे नींद ! मत सता, क्रोध ! मचा मत उथल-पुथल ! हे मोह ! पाश अपने ढीले कर, लोभ ! मत ललचा मुझे, हे मद ! मत कर मदहोश, हे इर्ष्या ! जला मत मुझे, ओ चराचर ! मत चूक अवसर, आई हूँ संदेश लेकर, चेेन्नमल्लिकार्जुन का…, हे मेरे जूही के फूल जैसे ईश्वर ! मँगवाओ मुझसे भीख और कुछ ऐसा करो कि भूल जाऊँ अपना घर पूरी तरह, झोली फैलाऊँ और न मिले भीख, कोई हाथ बढ़ाए कुछ देने को तो, वह गिर जाए नीचे और यदि मैं झुकूँ उठाने तो, कोई कुत्ता आ जाए और उसे झपटकर छीन ले मुझसे ।’

पहले वचन में महादेवी ने भूख, प्यास, क्रोध-मोह, लोभ-मद, ईर्ष्या पर नियंत्रण रखने और भगवान शिव का ध्यान लगाने की प्रेरणा दी है । दूसरे वचन में ईश्वर के सम्मुख संपूर्ण समर्पण का भाव है । महादेवी चाहती है कि वह सांसारिक वस्तुओं से पूरी तरह खाली हो जाए । उसे खाने के लिए भीख तक न मिले । शायद इसी तरह संसार उससे छूट सके ।

‘मंद-मंद हवाओं का स्पर्श मेरे प्रेम को और तीव्र कर रहा है और रात्री में ये पूर्णिमा की चांदनी तो प्रियतम से मिलने के लिए मेरे दिल को मानो जला-सी रही है । ओ भगवान ! कहाँ तुम चले गए ? कब मिलोगे…?’

‘मंगल भी तू है, जंगल भी तू है । जंगल के पेड़ों में, डाल-डाल, पात-पात भी तू ही है । मेरे प्यारे ! तू ही तू, तू ही तू, तू ही तू है । जंगल में, पशु में, किल्लोल करते पक्षियों में तेरी झाँकी । हे महादेव मल्लिकार्जुन, तेरा असली स्वरूप कोई विरला ही जाने !’

अक्का महादेवी तोते से कहती है – ‘तू इतना मीठा बोलना कहाँ से सीखा ? तुझे किसने सिखाया ? अरे कोयल, तुझे इतना बढ़िया गाना किसने सिखाया ? मोर इतना बढ़िया नाचना किसने सिखाया ? बता दे ना, बता भी दे…। हाँ, मेरे पति ने सिखाया है तुम्हें इतना बढ़िया ! अरे कोयल, अरे मोर, सच कहती हूँ, मेरे स्वामी से ही तुम इतना बढ़िया गाना और नाचना सीखे हो । मेरे पति कितने सुंदर, कितने बढ़िया हैं ! ओ महादेव ! मैं तेरी हूँ महादेवी !!

माई री ! उस अगम, अनन्त, अकाल, अविनाशी सुन्दर सलोने से हो गया है प्यार, माई री ! सुन री माई, सुन री उस अखंड, निडर, अजुनी सुन्दर सलोने से हो गया है प्यार माई री ! जात न पात उसकी, उस अगम, असीम सोहने से हो गया है प्यार, माई री ! भाड़ में जाएँ दूसरे पति ! चेन्नमल्लिकार्जुन पति मेरा सुन्दर सलोना, सुन्दर सलोने से हो गया है प्यार मुझे, माई री !’

कैसा अखूट प्रेम है अक्का महादेवी का ! धन्य है अपने इष्ट के प्रति ऐसी अनन्य निष्ठा…!

इधर राजा कौशिक की मानसिक स्थिति खराब हो गई । उसने भी वीर शैव धर्म अपना लिया, यह सोचकर कि ऐसा करने से रूठी हुई सुंदरी मुझे वापस मिल जाएगी । राजा ने गले में शिवलिंग लटका लिया, शरीर पर भस्म लगा ली और वीर शैव धर्म से जुड़े हुए संतों (महेश्वर) से गिड़गिड़ाने लगा – ‘कुछ उपाय करो । मेरी रूठी हुई महादेवी (महारानी) को वापस बुलवा दो । कोई उपाय बताओ जिससे वह वापस आ जाए । उसके नाराज रहने का कोई कारण नहीं । देखो, मैंने भी वीर शैव संप्रदाय अपना लिया है । महादेवी को कहो कि वह वापस आ जाए । मेरे साथ रहे ।’

संत (महेश्वर) तो दयालु होते हैं । राजा को गिड़गिड़ाते देखकर कुछ संत (महेश्वर) चल पड़े महादेवी को मनाने । महादेवी ने उन संतों से प्रार्थना की कि जिस विषय-विकार, भोग-विलास के दल-दल को छोडकर मैं बाहर निकली हूँ, क्या उसी दल-दल में आप मुझे वापस डालना चाहते हैं ? इस दुर्लभ मानव शरीर को मैं बरबाद करना नहीं चाहती । अक्का महादेवी प्रार्थना कर रही है – ‘हे नाथ, मैं पहाड़ पर आई हूँ पर तेरी माया इस निरंजन एकांत पहाड़ तक चली आई है मेरे पीछे ! माया इस घोर जंगल में भी क्यों पीछा नहीं छोड़ती ? हे नाथ ! मुझे अपनी माया से बचाओ, मैं तुझसे नहीं तेरी माया से डरती हूँ । बड़ी भूल-भुलैया है तेरी माया ! मुझे उससे बचा लो ।’

जो महादेवी को समझाने चले थे, वे दृढ़प्रतिज्ञ अक्का महादेवी की दृढ़ता को देखकर वापस लौट आए । राजा कौशिक निराशा में डूब गया । यह आखरी दाव भी वह हार चुका था । उसके पास आत्मग्लानी एवं पश्चाताप के सिवा कुछ बचा ही नहीं था । पीड़ा सहन करने के अलावा और कोई चारा भी तो नहीं था ।

असीमित इच्छाएँ, अनगिनत आकांक्षाएँ, सदैव असंतुष्ट आज के आधुनिक मानव का मन आध्यामिक मूल्य, आत्मसंतोष के आनंद व ज्ञान-भक्ति-वैराग्य के विलक्षण सुख की शायद कल्पना भी नहीं कर सकता ।

लेकिन भारत की कुछ नारियों ने भक्ति के इसी अलौकिक वैभव को घोर असुविधाओं के बीच भी प्राप्त करके मानो हमें आश्चर्यचकित-सा कर दिया है । चाहे उन पर दुनिया ने कितने ही इल्जाम लगाये, कितनी मुसीबतें दी पर उन्होंने कभी फरियाद नहीं की… हँसते-हँसते दुःख सह लिए … विश्वभर में ऐसी नारियाँ सिर्फ भारत में ही हुई हैं… शायद आज भी हों ! पर इसका पता सबको नहीं चल सकता । नारी का यह स्वरुप आज की आधुनिक दुनिया की समझ से परे है ! धन्य है भारत भूमि जहाँ ऐसी दिव्य विभूतियाँ अवतरित होती रहती हैं और धन्य है वे जो उनकी शरण आकर पारमार्थिक लाभ पाते हैं ।

जय जय महादेव ! जय जय महादेवी !!

अक्का महादेवी की साधना-तपस्या जिस स्थान पर हुई, उस गुफा तक जाने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ है । श्री शैलम में श्री मल्लिकार्जुन का दर्शन करने जो भी मंदिर में प्रवेश करता है, उसे महादेवी की मूर्ति का दर्शन भी हो जाता है । मैंने मैसूर (कर्नाटक) के एक मंदिर में अक्का महादेवी का तपस्यारत चित्र पहली बार देखा था । इस चित्र को देखकर मेरे शरीर में रोमांच हुआ । काफी देर तक इस चित्र को देखता रहा, नजर हटे ही नहीं । मुझे उत्सुकता हुई तब पता चला कि ये ‘अक्का महादेवी’ का चित्र है और इनकी तपस्या भूमी श्री शैलम् है ।

उनका तपस्यामय अद्भुत स्वरुप अद्वितीय है, शांत, सरल, आकर्षक और पूर्णत: निखालस है । मैं नि: संकोच कहूँगा कि इसी चित्र ने मुझे बार-बार श्री शैलम् जाने को विवश किया । पर मैंने देखा श्री शैलम् में मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग का दर्शन करने आनेवाले दर्शनार्थियों में से 10% लोगों को भी अक्का महादेवी के तपस्या स्थान के बारे में जानकारी नहीं है । भारत के महान संतो, ऋषि-मुनियों, तपस्वियों व महान नारियों के अनेक जन्मस्थान व तपस्या स्थान आज भी उपेक्षित हैं । शायद, उनके महत्त्व को अभी तक हम समझे नहीं हैं । करोड़ों भारतवासी अपने ही देश के ऐसे ऐतिहासिक स्थानों से अनभिज्ञ हैं । अवश्य ही ऐसे स्थानों के प्रति ध्यान देना चाहिए । महादेवी के तपस्या स्थान पर भी सुन्दर व्यवस्था हो और साधना करनेवाली नारियाँ सुरक्षित ढंग से रह सकें तो कितना अच्छा ! धन्य है भारत की इस नारी का त्याग व निष्ठा जो सर्वथा वन्दनीय है ! – पूज्य नारायण साँईं

Comments (4)
Mahashivratri 2019 Sandesh – Articles by Ohmmo
March 4, 2019 9:30 am

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Suman Sokhal
March 4, 2019 10:15 am

Such a divine message…. this happens only by saint’s heart

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Harsha suryavanshi
March 4, 2019 11:00 am

Inspired story, Jai Akka Mahadevi

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Nilesh pawar
March 4, 2019 1:34 pm

सूंदर …. धन्यवाद साईंजी

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