कैसा हो आपका व्यवहार ? (दिव्य सत्संग)

– पूज्य श्री नारायण साँईं जी

सबमें भगवान है ये अपनी एक दृष्टि है । व्यवहार अनेक के साथ होता है लेकिन उस व्यवहार में भेद है, तत्व में कोई भेद नहीं है । जय रामजी बोलना पड़ेगा । तत्व सबमें समान, सबमें एकरस है । एक उदाहरण दे दूँ । चोटी से लेकर पैर तक आप हो । आप जैसा अपने चेहरे के साथ सलूक करते हो ऐसा पेट के नीचे के अंगों के साथ नहीं करते हो । मच्छर पैर पर बैठा है तो उसको जोर से ठोकते हो । गाल पर बैठता है तो उसको धीरे से हटाते हो । पैर भी तुम हो, गाल भी तुम हो । फिर हाथों का जोर कम और ज्यादा क्यों होता है ? चेहरे पर हाथ लगाते हो तो धोते नहीं हो और अगर जाते हो बाथरूम वगैरह तो हाथ धोते हो । माँजते हो । पूरा शरीर आप हो लेकिन फिर भी आप अपने शरीर के साथ भी व्यवहार करने में भेद रखते हो । ठीक इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जो वर्ण हैं उनके साथ जो जैसा है उसके साथ वैसा व्यवहार करो । नीति कहती है साधु के साथ तुम साधु जैसा व्यवहार करो और जो शठ है उसके साथ महाशठता का व्यवहार करो । जो बुरा है उसको दंड देने की शक्ति तुम्हारे भीतर होनी चाहिए । जो सज्जन है उनके साथ सज्जनता से पेश आओ और जो बुरे है उनके साथ अगर तुम सीधे चलते हो तो तुम बुराई को बढ़ाने का अपराध करते हो । बुरे व्यक्ति को सीधा करने के लिए उसको समझाओ एक बार, दो बार, तीन बार… नहीं तो दंड देना पड़े तो वो भी दो लेकिन उसके भीतर भी ईश्वर है ऐसा समझकर उसका अहित न हो, उसके प्रति द्वेष मत रखो, उसके प्रति ईर्ष्या मत रखो, व्यवहार सबके साथ करो लेकिन सँभल के । हृदय में सबके प्रति शुभ भाव है लेकिन व्यवहार में तो फर्क रखना पड़ेगा । नहीं तो चल नहीं सकते ।
भगवान कृष्ण जो यह कह रहे हैं कि – ‘वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ।’ (श्रीमद्भगवद्गीता, सातवाँ अध्याय, 19वाँ श्लोक)
वो ही भगवान अर्जुन को कह रहे है – हे अर्जुन ! नपुंसकता की भाषा शोभा नहीं देती । हिजड़ेपने को छोड़ दे । गाली देते है । गिन के 108 गाली दिया है भगवान ने गीता में । भगवद्गीता का पहला अध्याय तो एक फॉर्मेलिटी है । कौन कहाँ खड़ा है, किसके हाथ में कौन-सा शंख है, ये सब भूमिका है । गीता दूसरे अध्याय से शुरू होती है और दूसरे अध्याय में भगवान कृष्ण का अर्जुन के प्रति उपदेश गाली देकर शुरू होता है ।
‘क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ ।’ (श्रीमद्भगवद्गीता, दूसरा अध्याय, तीसरा श्लोक) ये भगवान की वाणी है । भगवद्गीता का देख लो दूसरे अध्याय का दूसरा, तीसरा श्लोक… उसका अर्थ पढ़ो । हे अर्जुन ! नपुंसकता तुझे शोभा नहीं देती । अर्जुन बोलता है कि मुझे युद्ध नहीं करना । मुझे एक इंच भी जमीन नहीं चाहिए । ये जिंदगी तो कट जाएगी । दो रोटी तो कहीं भी मिल जाएगी । दो टुकड़े खाने के लिए मैं युद्ध करूँ । ये मुझे अच्छा नहीं लगता । तो भगवान बोलते हैं आत्मा न तो कभी जन्म लेती है, आत्मा न तो कभी मरती है, ये पवन से सूखती नहीं ।

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।

(श्रीमद्भगवद्गीता, दूसरा अध्याय, 23वाँ श्लोक)

ये अजन्मा है । लाखों लोगों के मर जाने के बाद भी आत्मा मरती नहीं और लोगों के पैदा हो जाने के बाद भी आत्मा पैदा नहीं होती । ये शरीर जन्मते हैं, शरीर मरते हैं, तू तत्व को देख । युद्ध करेगा विजयी होगा तो यश प्राप्त होगा और अगर युद्ध करते-करते अगर तू मर भी जाएगा तो तुझे स्वर्ग मिलेगा ।

धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ।

(श्रीमद्भगवद्गीता, दूसरा अध्याय, 31वाँ श्लोक)
एक क्षत्रिय के लिए धर्म युद्ध से बढ़कर अपने कल्याण का और कोई दूसरा साधन नहीं है । बोले – कृष्ण ! केशव ! क्या कह रहे हो ? बोले – ठीक कह रहा हूँ । ठोक… बोले – कृपाचार्य है । बोले – दुर्योधन के साथ है । दुष्ट के साथ है तू ठोक… बोले – ये कृपाचार्य । बोले – तू ठोक । बोले – ये मेरे पितामह भीष्म । बोले – मैं कहता हूँ ठोक । जिनको पितामह कहता था, प्रणाम करता था । ऐसे पितामह को अर्जुन बाण चला रहा है । भगवान की आज्ञा के अनुसार…. इससे हमें ये संदेश लेना है कि धर्म के लिए जीना और धर्म के लिए मरना श्रेयस्कर है लेकिन दुर्बलता वश हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहना कदापि उचित नहीं है । ‘वीरभोग्या वसुंधरा ।’ ये धरती वीरों की है ।
उपनिषदों में बम की नाई अगर कोई शब्द आया है तो ये आया है कि –

‘नायमात्मा बलहीनेन लभ्य:।’ (मुण्डकोपनिषद, 3.2.4) ये आत्मा दुर्बल लोगों को नहीं मिलता ।

तुम्हारी शारीरिक दुर्बलता हटाओ । मानसिक दुर्बलता हटाओ ।

किसी भी ढंग से दुर्बल व्यक्ति ईश्वर को पाने का अधिकारी नहीं है ।

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