पूज्य श्री नारायण साँई जी का साल 2020 का पहला पत्र…

आज 14 जनवरी 2020 है । 2020 में पहला पत्र आपको लिखते हुए रोमांचित हो रहा हूँ । दो दिन पहले ही स्वामी विवेकानंद की जयंती, कई जगहों पर युवा महोत्सव के रूप में मनाई गई । कई ओजस्वी महानुभावों को समाज में विभिन्न योगदान देने के लिए सम्मानित किया गया व पुरस्कार, अवॉर्ड दिए गए !
मकर संक्रांति, उत्तरायण का पर्व आप हम सबके लिए पुण्यप्रदायक हो मैं ऐसी मंगल कामना करता हूँ ।
मैं, कवि श्यामसुंदर श्रीवास्तव ‘कोमल’ की एक कविता प्रस्तुत करता हूँ ।
“प्रिये ! प्रातः की अमृतबेला, तम निद्रा का छोड़ झमेला
जागो नयन पसार उठो ! बुहारों द्वार ।
हे प्रिये ! सजाओ अल्पना, करो शुभम साकार कल्पना
जाग गया संसार… उठो ! बुहारों द्वार ।
सुस्ती त्यागो, आलस छोड़ो नव प्रकाश से नाता जोड़ो
करो नेह संचार… उठो ! बहारों द्वार !
शीश झुका मंगलाचरण में, अंजुरी भर के देव चरण में,
रख दो हर सिंगार, उठो ! बुहारों द्वार !”

तो, आइए इस उत्तरायण, मकर संक्रांति के पर्व पर हम आलस त्यागें, सुस्ती छोड़ें और अमृतबेला में ईश्वर का ध्यान करें । स्वयं को बदलें – जमाने को बदलने का हौंसला बुलंद करें । विश्व में शांति, प्रेम और करुणा का विस्तार करें । प्राणीमात्र के प्रति दया, करुणा… परपीड़ा को समझें ! विश्व में हिंसा बढ़ रही है । इन दिनों इराक-अमेरिका के बीच विवाद चल रहा है । आपसी कलह-द्वेष-वैर-वैमनस्य और हिंसा से कभी किसी का मंगल आज तक हुआ नहीं और होगा भी नहीं । मैं अमेरिका और ईरान के राष्ट्र प्रमुखों से अपील करता हूँ कि हिंसा व युद्ध का मार्ग छोड़कर हर विवाद को संवाद के जरिए सुलझाने का प्रयास करें ! आँख के बदले आँख लेने से तो पूरी दुनिया अंधी हो जाएगी । हमें विश्व में शांति, प्रेम व करुणा की मिसाल पेश करनी है और आनेवाली पीढ़ियों के लिए आदर्श प्रस्तुत करना है । हमें उस मार्ग पर आगे बढ़ना है कि जिस मार्ग पर चलकर दुनिया अपना कल्याण करने में कामयाब हो पाए !

गुजरात के सौराष्ट्र में बाबा बजरंगदास महाराज की पुण्यतिथि बगदाणा गुरु आश्रम में मनाई जा रही है और सूरत-बड़ौदा-राजकोट-भावनगर सहित गुजरात के कई स्थानों में उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर भंडारा-कीर्तन-प्रसाद का आयोजन हुआ ।
उत्तरायण के अवसर पर देश में दो घटनाएँ महत्वपूर्ण हुई जो हर साल होती है लेकिन इस पर देश-दुनिया को ज्यादा पता नहीं है ।
एक तो राजस्थान के बांसवाड़ा के निकट भूंगड़ा गाँव में हर वर्ष मकर संक्रांति पर पिछले 129 वर्षों से चोपड़ा वाचन की परंपरा है और देश-दुनिया की भविष्यवाणियाँ की जाती है जिसे सुनने के लिए हजारों लोग आते हैं ।
(संदर्भ :- पत्रिका – 14/01/2020, पेज नं. – 8)

प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर भंगड़ा गांव में होता है आयोजन
129 साल से जारी है चौपड़ा वाचन की गौरवमयी परंपरा

हजारों की संख्या में भविष्यफल जानने उमड़ते है लोग
पत्रिका न्यूज़ नेटवर्क, बांसवाड़ा.

समय और जमाने के साथ चाहे कितना कुछ बदल जाए, लेकिन कुछ परंपराएं ऐसी होती हैं, जिनका महत्व समय के साथ और भी बढ़ता जाता है। जिले के भंगड़ा गांव में पिछले 129 वर्षों से मकर संक्रांति पर होने वाले चौपड़ा वाचन की गौरवमयी परंपरा इस बात का जीता जागता उदाहरण है। मंगलवार को हजारों लोग भंगड़ा में वर्षफल जानने पहुंचेंगे। खास बात यह भी है कि यह भविष्यवाणी पूरे देश के लिए होती है। जिसमें राजनीति, मौसम, व्यापार, कृषि आदि मुख्य बिंदु होते हैं। इसी के साथ वागड़ की दृष्टि से भी भविष्यवाणी की जाती है।

ग्रामीणों में आज भी है क्रेज़
आधुनिक युग में जहां इंटरनेट और पंचांग आदि में आसानी से घर बैठे भविष्य फल की जानकारी उपलब्ध हो सकती है। विद्वानों की भी क्षेत्र में कमी नहीं है। इसके बावजूद ग्रामीणों में चौपड़ा वाचन सुनने का क्रेज है। यहां चौपड़ा वाचन सुनने के लिए वागड़ क्षेत्र सहित मध्यप्रदेश और गुजरात से भी बड़ी संख्या में लोग पहुंचते हैं।

ऐसे शुरू हुआ चौपड़ वाचन
वर्तमान में चौपड़ा वाचन करने वाले पं. दक्षेश पंड्या ने बताया कि चौपड़ा वाचन की परंपरा 129 वर्षों से जारी है। पहली बार यह आयोजन वर्ष 1890 में हुआ था। इसके बाद से हर वर्ष भुंगड़ा में यह चौपड़ा वाचन किया जाता है। चौपड़ा तैयार करने में करीब 2 माह से अधिक का । समय लगता है। दीपावली बाद से ही यह कार्य शुरू कर दिया जाता है। इसके लिए ज्योतिष शास्त्र और कई पंचांगों का अध्ययन किया जाता है।

दूसरी खास बात है कि देवली के निकट आवां में अकाल या सुकाल का निर्णय भी होता है जिसमें एक बड़े दड़े से हजारों खिलाड़ी खेलते हैं – 80 किलो वजनी दड़े से ! बारहपुरों के हजारों गुर्जर बहुल गाँव के लोग मकर संक्रांति पर भाग लेते हैं ।
(संदर्भ :- दैनिक भास्कर – 13/01/2020, पेज नं. – 6)

आवां में अकाल या सुकाल का निर्णय कल, उसी के अनुरूप की जाएगी बोआई :

बारहपुरो के नाम से पहचाने जाने वाले गुर्जर बहुल गांवों के लोग सौहार्द से खेलते हैं दड़ा

कहने और सुनने में भले ही विश्वसनीय न लगे पर यह कटु सत्य है कि आवां कस्बे में मकर संक्राति का दिन पूरी दुनिया में खास है। इसकी वजह इस दिन सदियों से चला आ रहा फुटबॉल की तरह खेला जाने वाला कस्बे का पारंपरिक अनोखा खेल दड़ा है। इस दड़े का वजन 80 किलो है।
इस खेल की खास बात यह है कि इसमें न तो कोई फिक्स नाप का गोल पोस्ट होता है और न फुटबॉल खेल की तरह कोई गोलकीपर व रैफरी होता है। फिर भी बिना किसी गिला-शिकवा के खेले जाने वाले इस खेल में आवां और दूनी दरवाजे के नाम से सदियों से गोल पोस्ट निर्धारित है। कस्बे के आस-पास के बारहपुरो के नाम से पहचाने जाने वाले गुर्जर बाहुल्य गांवों के सभी धर्म, जाति के लोग सौहार्द से इस खेल को बड़े उत्साह से खेलते हैं ।
दड़ा खनियां दरवाजे के पार हुआ तो अकाल, दूनी दरवाजे को पार किया तो सुकाल
दर्शकों के रुप में आवां कस्बे समेत आस-पास के गांवों से सजधज कर आने वाली महिला-पुरुषों एवं बच्चों आदि की भीड़ हूटिंग करती रहती है। अब तक की जानकारी के अनुसार इस तरह का अचंभित करने वाला खेल दुनिया में कहीं नहीं खेला जाता है। इसके बावजूद इस खेल का नाम न तो लिम्का बुक में है और ना गिनीज बुक में है। ऐसे में जिले ही नहीं प्रदेश, देश के लिए गौरवमयी इस खेल को अधिकारिक स्तर पर अव्वल दर्जा नहीं मिलने का मलाल इस कस्बे समेत क्षेत्र के लोगों को आज भी है। इस खेल के मायने यही खत्म नहीं होते हैं। सब लोग जिस तरह से लोग इस खेल का शुरू होने का इंतजार करते हैं उसी तरह इसके खत्म होने का इंतजार भी करते हंै। इसकी मुख्य वजह है इस खेल के परिणाम पर देश में अकाल और सुकाल का पता लगना है। फुटबॉल आकार का 80 किलो वजनी दड़ा खेलते समय अखनियां दरवाजे के पार हो जाता है तो देश में अकाल का संकेत माना जाता है और दड़ा खेलते हुए दूनी दरवाजे को पार कर जाता है तो सुकाल का प्रतीक माना जाता है।
आवां में इस दड़े से खेलेंगे हजारों खिलाड़ी।

सौहार्द का प्रतीक दड़े का पारंपरिक खेल
80 किलो वजन, हजारों ग्रामीण होंगे खिलाड़ी, न रेफरी होगा न गोलकीपर ।

 

और अब किसी ने मुझसे मुलाकात में एक शायरी सुनाई –
“हम तेरी चाहत में ऐ मेरे साँईं ! न जाने कहाँ कहाँ पहुँच गए !
होश भी न रहा कि हम तेरे दीदार को कहाँ तक पहुँच गए ! !
जब तू था बेल पर तो तेरे दर तक पहुँच गये,
और जब तू था जेल में तो तेरी मुलाकात को पहुँच गए !
कभी जेल के गेट तक तो कभी अदालतों की चौखट तक पहुँच गए,
ओ मेरे साँईं ! हम आपके दीवाने आपके चरणों तक पहुँच गए !”

कोई थे ज्ञानी, कोई थे ध्यानी, कोई बिरहमन तो कोई थे शेख,
कोई मस्तमौला तो कोई इश्क-ए-मोहब्बत के प्यासे तेरे दर तक पहुँच गए…
ओ मेरे नारायण साँईं… मेरे मस्त हरफनमौला…
ओ ओहम्मो ! सोsहम्मो ! हम तेरे दीदार को पहुँच गए !
ये सुनकर मैंने उत्तर में कहा :-
लगता है अब हमें जेल से बाहर आना ही होगा ।
देश-दुनिया के ये जो मसले ऐसे हैं कि सिर्फ
कागज से हल न होंगे…
सलाखों के भीतर से हल न होंगे…
हर बुधवार को शाम की चंद मिनटों की मुलाकात में आए हुए साधक झूम उठे ! और उनके मुखारविंद पर आनंद की झलक छा रही थी ।
– नारायण साँईं

Leave comments

Your email is safe with us.

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.