भारत सरकार, भारत की सभी राज्य सरकारों एवं जागृत नागरिकों,

समाजसेवी संगठनों को युवा ऋषि, तेजस्वी नारायण साँईं का संदेश…

देश की इस समस्या के प्रति अब सरकारों को जागने व काम करने की जरूरत है कि कई राज्यों में विलायती बबूल ने हजारों एकड़ जमीन को घेर रखा है व इसके कारण पशु-पक्षियों को तो खतरा है ही, उपजाऊ और अच्छी जमीन भी बेकार अनुपयोगी हो गई है ।
गुजरात में अहमदाबाद से – राजकोट-भावनगर वाले सड़कमार्ग या रेलमार्ग से जाते समय देखियेगा, सूरत से रतलाम-कोटा-राजस्थान-मध्य प्रदेश की रेलमार्ग पर खिड़की से भी दिखेगा -, विलायती बबूल ने भारत की हजारों-लाखों एकड़ जमीन को बर्बाद करके रखा है ।
राज्य सरकारों व केंद्र सरकार को भी भूमि सुधार अभियान चलाकर विषझाड़ विलायती बबूल को सदा के लिए उखाड़ फेंकने का कार्यक्रम शुरू करना चाहिए और उखाड़ने के बाद उन गड्ढ़ों में फलदार पेड़ों के बीज या पौधे लगाने चाहिए । यह कार्य मार्च-अप्रैल से शुरू करना चाहिए और बारिश-मानसून आने से पहले तक जितना हो सके जारी रखना चाहिए । वे ही JCB मशीनें जो बबूल को उखाड़ेंगी । वे ही मशीनों का उपयोग तालाबों को गहरा करने में, झाड़ियों को एकत्रित करने में, जमीन लेवलिंग करने में हो सकता है । इस अभियान के तहत व्यापक रूप से हम वनीकरण या घटते जंगलों को बढ़ाने में, पर्यावरण की रक्षा करने में भी योगदान दे सकते हैं । स्वयंसेवी संस्थाएँ, संगठन व जागरूक नागरिक हर जगह सरकारों के सहयोग से इस कार्य को देशहित में शुरू करें !
– नारायण साँईं

शिकंजा विषझाड़ का…

राजस्थान के कोटा जिले में एक चिंगारी फूटी है। “राजस्थान पत्रिका’ के समाचार अभियान के बाद जिले में विषझाड़ विलायती बबूल के खिलाफ वातावरण बनने लगा है। विलायती बबूल, जिसे वानस्पतिक भाषा में प्रोसोपिस अकेसिया जूलीफ्लोरा कहा जाता है,न सिर्फ लाखों हेक्टेयर जमीन लील चुका है, बल्कि वनस्पति और जन्तुओं की सैकडों प्रजातियों को नष्ट कर चुका है।

विलायती बबूल एक पूरी तरह निकम्मा पौधा है। राजस्थान में कई जगह तो इसे “बावलिया भी बोला जाता है। न इसके पत्ते काम के हैं, न फूल। न छाया मिलती है, न लकड़ी। पर्यावरण को तहस नहस करने में सबसे आगे। जरा सी नमी मिल जाए तो चट्टानों पर भी पनप जाता है और फिर धीरे धीरे जंगल,खेत, तालाब सबको खा जाता है। हाड़ौती के 45 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की जमीन पर इसने अतिक्रमण कर लिया है। सिरोही जिले के 40 हजार हेक्टेयर में यह छा चुका है। दिल्ली के रिज इलाके और एन.सी.आर. के अनेक क्षेत्र इसके मायावी शिकंजे में आ चुके हैं। राजस्थान के अलावा हरियाणा, गुजरात, महाराष्ट्र और तमिलनाडु तक इसके प्रकोप से जूझ रहे हैं। जहां यह पनपता है, जलस्तर नीचे चला जाता है। यह अपने नीचे घास तक नहीं पनपने देता। इसकी कंटीली झाड़ियां सैकडों पक्षी प्रजातियों को नष्ट कर चुकी। देशी बबूल, धोकड़ा और थोर जैसे वृक्षों को यह अपने घरों से बेघर कर चुका। ऑक्सीजन छोड़ना तो दूर यह वातावरण में कार्बनडाई ऑक्साइड जैसी विषैली गैस की मात्रा बढ़ा देता है। अकेले इसी के कारण भरतपुर के केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान में अनेक अजगरों की जीवन-ज्योति बुझ गई। इतने सारे अवगुण होने के बावजूद वन विभाग विलायती बबूल का मोह छोड़ नहीं पा रहा। इसी के बूते तो वह वन विस्तार के झूठे तथ्य इकट्ठा कर पाता है। इतने नुकसान के बावजूद इस विषझाड़ के सफाये का कोई बड़ा अभियान आज तक नहीं चलाया गया।

कोटा से एक चिंगारी उठी है। कुछ संस्थाएं विलायती बबूल को उखाड़ फेंकने के अभियान में आगे आई हैं। यह चिंगारी आग में बदलनी चाहिए। हमें संकल्प करना चाहिए. अपने राज्य और देश को इन कांटों से मुक्त कराने का। इससे हम बहुत सी जमीन को बर्बाद होने से बचा सकेंगे। जलस्तर भी ऊंचा उठ सकेगा। ग्राम पंचायतों को युद्धस्तर पर इस काम को हाथ में लेना चाहिए। अच्छा हो वन विभाग खुद बीड़ा उठाए। हालांकि उससे उम्मीद कम ही है। आए दिन शहरों में जंगली जानवरों को घुस आना, वन क्षेत्र से अवैध खनन धड़ल्ले से होना, शिकार की बढ़ती घटनाएं बताती हैं कि वन विभाग कितना संवदेनशील है। वन विभाग ने ही वाह-वाही लूटने के लिए इस नुकसानदायक पौधे के बीजों का छिड़काव करवाया। उसी के दिए घाव आज नासूर बन गए हैं। कोटा ने घाव भरने की शुरुआत की है, आओ हम सब इस पावन यज्ञ में अपनी-अपनी आहूति डालें।

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