हमारे सदगुरुदेव द्वारा प्रदान किए गए  ” एक में सब, सबमें एक ”  सूत्र को हमें आत्मसात करना है और यही दर्शन शासकों में, प्रजा में, सभी देशों में विकसित करना है तभी एक मंगलमय, सुखद, आनंदमय विश्व का निर्माण होना सम्भव हो सकेगा ऐसा मैं दृढ़तापूर्वक मानता हूँ । मेरे इसी विचार के सन्दर्भ में भारतीय विद्या भवन के संस्थापक एवं कुलपति कनैयालाल एम. मुनशी कुछ इस तरह से इस सूत्र को परिभाषित करते हैं कि:-

” अपने संकुचित अहंवादी स्व से उबरकर हमें उस विस्तृत आधार पर पहुँचना होगा जो एकत्व की सामूहिक चेतना तक पहुँचता है । यह सामूहिक चेतना हमें पूरे भारत से एकाकार करती है। भारत से आगे बढ़कर यह एक विश्व तक पहुँचती है, यह प्रक्रिया यहीं नहीं रुकती, समूचे अस्तित्व को अपने में समेटती है। ऐसा सिर्फ विचारों में ही नहीं होता, और न ही केवल आकांक्षा मात्र है । यह  कदम दर कदम वैयक्तिक जीवन से सम्पूर्ण अस्तित्व के जुड़ने की प्रक्रिया है । हमें यह देखना होगा कि यह जुड़ाव मनुष्य के सम्पूर्ण अस्तित्व का, ईश्वर की संपूर्णता से होगा। ‘ सब उसमें और सबमें वह ‘ मानने की स्थिति होगी यह । तब भारत एक होगा, विश्व एक होगा, एक नया युग आएगा । एक पूरे जीवन का प्रभात होगा यह । कुल मिलाकर यह एक ऐसी चेतना है जो सम्पूर्ण मनुष्यता को उजागर करती है । सृष्टि के सारे प्राणियों से सह – अस्तित्व का संदेश देनेवाली यह सामूहिक चेतना सर्व कल्याण की कामना को परिभाषित करती है। ”

मैं चाहता हूँ कि ‘ एक में सब, सबमें एक ‘ सूत्र को अधिक से अधिक हम आत्मसात करके सृष्टि के सारे प्राणियों के साथ सह- अस्तित्व का अनुभव करते हुए सामूहिक सर्व कल्याणकारी चेतना का हम अधिकाधिक विकास करें और मंगलमय, सुखद, आनंदमय विश्व का निर्माण करें।
‘ लोका: समस्ता: सुखिनो भवन्तु ‘

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