मैं निर्दोष था, निर्दोष हूँ, निर्दोष रहूँगा…

निर्दोषं हि समं ब्रह्मं, तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ।

गीता ने कहा है कि – ‘वह ब्रह्म सदैव निर्दोष है उस ब्रह्म में स्थित हो जाओ ।’ तो जिसकी उस निर्दोष ब्रह्म में स्थिति है उसको कभी दोष छू नहीं सकता । उसमें दोष टिक नहीं सकता । सारे दोष स्वाहा हो जाते है तो मैं उस निर्दोष ब्रह्म में मेरी स्थिति हैं अतः मैं निर्दोष था, निर्दोष हूँ, निर्दोष रहूँगा । जो मुझे ब्रह्मस्वरूप नहीं मानते, नहीं जानते, वे मुझे निर्दोष भी नहीं मानेंगे । वो मुझे शरीर मानकर मुझमें दोषारोपण करते रहेंगे, दोषी मानते रहेंगे । इससे मेरी निर्दोषता में कोई फर्क नहीं पड़ता । तो वो मुझ निर्दोष ब्रह्म को नहीं जानते । उनकी सीमित दृष्टि के कारण उनको मेरे असीम आनंद का, परम माधुर्य का और अनंत सुख का अनुभव भी नहीं हो सकता । दोष किसमें नहीं है ? शरीर में त्रिदोष है चाहे किसी का भी शरीर हो और उसी के कारण रोग आते है, बीमारियाँ आती है । वात, पित्त, कफ जैसे जब कोई कुपित हो जाता है तो शरीर में बीमारी आ जाती है । दोषरूपी हो जाते है । ठीक है… तो जहाँ किसी दोष की पहुँच नहीं है ऐसे निर्दोष आत्मा में, ब्रह्म में स्वयं को प्रतिष्ठित करो तो निर्दोष और निष्कलंक बने रहोगे । चाहे दुनिया आप पर कलंक लगाए, दोष लगाए पर आप स्वयं जो है निर्दोष और निष्कलंक बने रहेंगे । उस अखंड आत्मा में अपनी स्थिति को दृढ़ करो । तो जो भी दोष है वो शरीर में हैं । कितना ही गंगाजल पी लो लेकिन वो बदबूदार बन जाता है । पानी निकालता है और कितना ही वो भोजन अच्छा कर लो गंगाजल में बना हुआ आखिर…. तो ये जो कितना अच्छा पानी पीओ, कितना अच्छा भोजन करो लेकिन मलमूत्र बन जाता है । अशुद्धि और गंदगी बन जाती है । दोष उसमें आ जाते है । लेकिन शरीर में तो दोष है, मन में है और सभी के शरीरों में, मन में दोष रहेगा ।
गीता ने क्या कहा है – ऐसा नहीं कहा कि – सत्यं अहं अर्जुनं । कि हे अर्जुन ! जो सत् है वह मैं हूँ । ऐसा नहीं कहा । सब सच्चा अहं अर्जुनः । जो सत् है वो भी मैं हूँ और जो असत् है वो भी मैं हूँ । 24 घंटे में 12 घंटे का दिन, 12 घंटे की रात तो रात्रि उतनी जरूरी है जितना दिन जरूरी है । है ना… उसी प्रकार गुण और दोष ये दोनों का मिश्रण ही जगत और संसार है । गुण को लेकर दोष है और दोष को लेकर गुण है । एक-दूसरे के अन्योन्य आश्रित है । जैसे सिक्के की दूसरी साइड । शरीर में, मन में, बुद्धि में गुण और दोष है लेकिन जो ब्रह्म है वो सदा निर्दोष है । उसमें दोष था नहीं, है नहीं, हो नहीं सकता । तो उस ब्रह्म में अपनी प्रतिष्ठा करो जो सदैव निर्दोष था, जो सदैव निर्दोष है, जो सदैव निर्दोष रहेगा । उसमें कभी दोष पहुँच नहीं सकता । उसमें कभी दोषों का प्रवेश नहीं हो सकता । उस अपने अखंड स्वरूप में जो है प्रतिष्ठित हो जाना । तो फिर चाहे दुनिया कितना ही दोषारोपण करें लेकिन तुम्हारे मन में, तुम्हारी बुद्धि में पीड़ा नहीं होगी, विक्षेप नहीं होगा, हलचल नहीं होगी । तुम सदैव अपने ब्रह्म स्थिति में आनंद में रहोगे ।
ॐ आनंदम् ! ॐ माधुर्यम् !
मौज ही मौज….

– नारायण साँईं

Comments (3)
Babusingh Gokulsingh Rajput
April 28, 2019 9:29 pm

Om Om Om Saiji Jaldi Bahar Ayon

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Ajay Dubbaka
April 28, 2019 10:11 pm

Sadhoo saadhooo

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Shailesh chaudhary
August 9, 2019 10:48 pm

Sai

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